कर
दान,
महा
कल्याण
विजय शर्मा
विजय शर्मा |
भारतीय समाज भयंकर संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह बहुत भ्रमित
है। इस जंक्शन पर उसे कुछ भी परोसा जा सकता है। सोशल सर्विस के नाम पर कुछ भी।
समाज की मानसिकता ऐसी है कि समाज सेवा के नाम पर कुछ भी ऊल-जलूल उसके सामने रखा जा सकता है और वह
उसे लपक कर लेगा क्योंकि सोशल कॉज के नाम पर वाहवाही मिलती है। सोशल कॉज के नाम पर
गंभीर कामों का मजाक बनाया जा सकता है। आप समाज सेवा के बल पर रातोंरात धनी बन
सकते हैं। सोशल सेवा में बहुत मान-समान
और पैसा है। सोशल सर्विस के नाम पर हिन्दी सिने दर्शकों के सामने एक फ़िल्म परोसी
गई है ‘विक्की डोनर’।
‘विक्की डोनर’ का विक्की एक मस्तमौला, हैप्पी गो लकी लड़का है जो बहुत सारे
पंजाबी युवाओं की तरह जीवन मस्ती में बिता रहा है। लाजपतनगर के निवासी विक्की की
विधवा माँ (डॉली अहलुवालिया) ब्यूटी पार्लर चला कर घर-गृहस्थी की गाड़ी खींच रही है। बूढ़ी दादी
सदैव विक्की का पक्ष लेती है। उसके उल्टे-सीधे
विचारों को जायज ठहराती है। सास-बहु
में दिन भर नोंक-झोंक चलती है मगर शाम होते ही वे हमप्याला-हमनवाला बन अपने सुख-दु:ख
साझा करती हैं। जाम खोल कर अपनी छोटी-सी महफ़िल सजाती हैं। डॉली ने बहुत सहज और
अच्छा अभिनय किया है । पूरी कॉलोनी रिफ़्यूजियों की है जिन्हें मेहनत करने से कोई
गुरेज नहीं हैं मगर विक्की ये छोटे-मोटे
काम नहीं करना चाहता है उसके सपने बड़े हैं। वह शानो-शौकत
की जिन्दगी बिताना चाहता है। उसे किसी बड़े अवसर की तलाश है।
डॉक्टर बलदेव चड्ड़ा संतान की ओर से नाउम्मीद जोड़ों के चेहरों
पर हँसी के फ़ूल खिलाता है। मगर कुछ दिनों से उन्हें डोनर का टोटा पड़ा हुआ है। वे
स्पर्म्स का व्यापार करते हैं जो मंदा चल रहा है। वे डोनर से स्पर्म्स ले कर नि:संतान जोड़ों के यहाँ बच्चे पैदा कराते
हैं। विज्ञान का फ़ायदा उठाते हुए हर दम्पति ऐश्वर्या राय-सी सुंदर कन्या और सचिन जैसा बेटा चाहता
है, जिसका
वायदा और आपूर्ति डॉक्टर चड्ड़ा करते हैं। अब उन्हें ऐसे डोनर की तलाश है जो आर्य
रक्त का हो। क्या हम इस आर्य रक्त के कारण काफ़ी नुकसान नहीं उठा चुके हैं जो आज के
युग में पुन: इसकी
बात की जा रही है? इस
खतरनाक बात को लोगों के सामने रखने का क्या औचित्य है? जहाँ पहले से ही इतनी नफ़रत है वहाँ आर्य
रक्त की बात करना आग में घी डालना है। वैसे डॉक्टर साहब नक्शा दिखा कर यह सिद्ध कर
देते हैं कि सब मिश्रित रक्त के ही हैं। वे कुछ ऐसा चारा डालते हैं कि विक्की उनके
लिए काम करने को राजी हो जाता है हालाँकि इसके लिए उन्हें काफ़ी पापड़ बेलने पड़ते
हैं। वे विक्की को यह समझाने में सफ़ल हो जाते हैं कि वह कितना बड़ा और महान काम कर
रहा है। वर्ल्ड हैल्थ ओर्गनाइजेशन भी बाजारवाद को बढ़ावा दे रहा ह तो क्या आश्चर्य।
फ़िल्म वर्ल्ड हैल्थ ओर्गनाइजेशन एक कोटेशन से शुरु होती है ।
जब डोनेशन के लिए विक्की क्लिनिक पहुँचता है तो विचित्र स्थिति
आती है वह यह आसान-सा काम नहीं कर पाता है। डॉक्टर चड्ड़ा के पास सारी समस्याओं का
रामबाण है। यह सीन देखते हुए मुझे अचला शर्मा की कहानी ‘उस दिन आसमान में
कितने रंग थे’ याद
आई उन्होंने इस तनाव की स्थिति का बहुत संवेदनशील चित्रण किया है वैसे वहाँ स्थिति
और वातावरण भिन्न था। खैर..दोनों
का धंधा चल निकलता है। डोनेशन भी आ-मद-नी का जरिया है। पहले-पहल माँ को आश्चर्य होता है फ़िर ऐशो-आराम की चीजें जरूरत बन जाती हैं। कोई
उनकी तह में नहीं जाता है। आती लक्ष्मी किसे बुरी लगती है।
इसी बीच विक्की को एक पढ़ी-लिखी
बैंक में काम करने वाली लड़की आशिमा रॉय से
प्रेम हो जाता है। फ़िल्म देखते हुए मैं अँगुली नहीं धर पा रही थी कि आखिर यह
सुंदरी कौन है। बाद में याद आया अरे यह तो सैमसंग गैलेक्सी और फ़ेयर एंड लवली के
विज्ञापन में दीखती/चमकती
(यामी
गौतम) है।
यहाँ भी वह चमकी है। अपने खूबसूरत अभिनय से इस विचार को ध्वंस करती है कि विज्ञापन
के लिए काम करने वाले लोग फ़िल्म में अच्छा अभिनय नहीं करते/सकते हैं।
सबसे अधिक मनोरंजक और स्वाभाविकता वाले दृश्य वो हैं जहाँ
बंगाली परिवार और पंजाबी परिवार की एक दूसरे से वैवाहिक संबंध बनाने को लेकर
आपत्ति जताई जाती है। पर जब मियाँ-बीवी
राजी तो क्य करेगा काजी। विभिन्नता में एकता को दर्शाते हुए दोनों परिवार एक हो
जाते हैं। मजेदार जाने-पहचाने
संवाद है, अदायगी
भी उतनी ही मजेदार है। नायक नायिका की धूमधाम से शादी हो जाती है। वह फ़िल्म क्या
जिसमें वियोग और परेशानी न हो। विडम्बना है कि विक्की दूसरों के घरों को गुलजार कर
रहा है मगर उसकी पत्नी माँ नहीं बन सकती है। इसी मुद्दे पर बहस होती है और आशमी को
पता चलता है कि उसक पति स्पर्म्स डोनर है। यही उसकी कमाई का जरिया है। वह इस बात
से इतनी आहत नहीं होती है कि विक्की यह काम करता है। उसे यह बात बहुत आहत करती है
कि उससे यह बात विक्की ने छिपाई जबकि शादी के पहले आशमा ने अपने जीवन की सारी
बातें यहाँ तक कि वह तलाकशुदा है उसे बता दी थी। बैंक में कार्य करने वाली बिंदास
लड़की यह पचा नहीं पाती है और विक्की को छोड़ कर अपने घर कलकत्ता चली जाती है।
बिंदास और नौकरी पेशा आत्मनिर्भर लड़कियाँ भी जब अपना घर छोड़ती हैं तो वापस अपने
पिता के घर जाती हैं अकेली और स्वतंत्र रहने की बात उनके दिमाग में नहीं आती है।
विक्की के डोनर होने की बात मुहल्ले-बिरादरी में फ़ैल जाती है। उसकी थू-थू होने लगती है। वह डॉक्टर के यहाँ
जाना बंद कर देता है। उसकी आर्थिक स्थिति गिरने लगती है। वियोग में वह बहुत दु:खी है। विक्की की माँ की झाड़ खकर डॉक्टर
चड्ड़ा विक्की के परिवार को फ़िर से एक करने की योजना बनाता है। आज के बाजारवाद के
युग में किस समस्या का हल नहीं है। वह अपनी क्लिनिक की सालगिरह मनाने की योजना
बनाता है जिसमें वह उन सब परिवारों को आमंत्रित करता है जिनके यहाँ विक्की के
स्पर्म दान ने गुल खिलाया है। ऐसे ५३ परिवार हैं
(अब तक छप्पन क्यों नहीं हुए!)
इस पार्टी में वह विक्की और आशमा को भी आमंत्रित करता है। आशमा
इन बच्चों को देख कर अपने पति की महानता से अभिभूत हो जाती है। मगर कहानी यहीं
नहीं खतम होती है। विक्की की कृपा से एक और बच्ची पैदा हुई है जिसके माता-पिता दुर्घटना में मर चुके हैं और बाबा-दादी इतने बूढ़े और अशक्त है कि बच्ची का
लालन-पालन
नहीं कर सकते हैं अत: बच्ची
को अनाथालय में रख देते हैं। इसी बच्ची को विक्की और आशमा गोद लेते हैं। सोशल
सर्विस के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है। विक्की पत्नी की अनुमति से अपना
स्पर्म्स डोनेशन का काम जारी रखता है। बोल सियावर रामचंद्र की जय और फ़िल्म समाप्त
हो जाती है। मेरे मन में कुछ सवाल छोड़ जाती है।
आयशा पढ़ी-लिखी
है, डॉक्टर
भी पढ़ा-लिखा
होना चाहिए। जब पता चलता है कि आशमा माँ नहीं बन सकती है तो एक बार भी सरोगेट मदर
की बात क्यों नहीं सोची जाती है जबकि हिन्दी में इस विषय पर फ़िल्म (सलमान खान, प्रीति जिंटा, महिमा चौधुरी) बन चुकी है। तब विज्ञान को क्यों नहीं
याद किया जाता है जबकि विज्ञान के चमत्कार को फ़िल्म स्वीकार कर रही है। सारी फ़िल्म
में स्पर्म चारों ओर फ़ैले हुए हैं। स्पर्म डोनेशन से संबंधित कई बातों को फ़िल्म
नहीं दिखाती है। वह नजर अंदाज ही नहीं करती है उनकी उपेक्षा भी करती है। यह एक
कानूनी प्रक्रिया है। इसके कानूनी पक्ष को फ़िल्म नजर अंदाज करती है अर्थात फ़िल्म
दर्शकों को गुमराह करती है। क्या यह उचित है?
कानून कहता है कि डोनर और रिसीपियंट की पहचान गुप्त रखी जाती
है। क्योंकि ऐसा नहीं करने से तमाम तरह के सामाजिक,
भावात्मक, आर्थिक
परेशानियाँ खड़ी हो जाएँगी। सरोगेट मदर के केस में पूर्व लिखित करारनामा रहता है।
अधकचरी जानकारी काफ़ी खतरनाक साबित हो सकती है। फ़िल्म में विक्की बहुर भावुक
व्यक्ति है पर इतने सारे अपने बच्चों को देख कर खास प्रतिक्रिया नहीं करता है। ऐसी
स्थिति में व्यक्ति क्या नहीं कर गुजरेगा जबकि उसकी अपनी पत्नी बच्चे पैदा करने
में असमर्थ है।
फ़िल्म भारत में स्पर्म डोनेशन की प्राचीन पद्धति की बात करती
है। जबकि दोनों बिल्कुल अलग बातें हैं। प्राचीन काल में नियोग पैसे के लिए नहीं
होता था। अपनी मर्जी अथवा दूसरों की इच्छा पर सहमत हो कर होता था। पुरुष परिवार का
कोई सदस्य अथवा समाज का सम्मानित व्यक्ति होता था। उसकी खूबसूरती नहीं देखी जाती
थी। व्यास को नियोग के लिए राजी करते समय उनके शारीरिक सौष्ठव को प्राथमिकता नहीं
दी गई थी, वे
राजकुमार भी नहीं थे। असल में तब यह बाजार संचालित नहीं था, व्यापार नहीं था। आज बाजार पुरुषों के
सौंदर्य प्रसाधनों से अटा पड़ा है। जॉन अब्राहम फ़िल्म के अंत में आइटम नम्बर करते
नजर आते हैं वैसे फ़िल्म उन्होंने ही निर्मित की है।
जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखित और सुजित सरकार द्वारा निर्देशित
फ़िल्म विक्की डोनर में केवल कमियाँ ही नहीं हैं। बहुत सारी बातें अच्छी और मनोरंजक
भी हैं। संवादों में फ़ूहड़पन नहीं है वरना इस विषय में फ़ूहड़ और अश्लील हो जाने की
पूरी-पूरी
गुंजाइश बनती है। डॉक्टर चड्ड़ा के रूप में अन्नु कपूर का उत्कृष्ठ अभिनय किरदार को
साकार कर देता है। सुंदर माहौल, सुंदर
नायिका, सुंदर
अभिनय, सजीव
संवाद सब मिलकर फ़िल्म को मनोरंजक बनाते हैं। नायक आयुष्मान खुराना को पहली बार
देखा उसका अभिनय अच्छा लगा। फ़िल्म सिर्फ़ एंटरटेंमेंट, एंटरटेंमेंट और एंटरटेंमेंट होती है।
गंभीर विषय को हल्का-फ़ुल्का
बना कर प्रस्तुत न किया गया तो निर्देशक और निर्माता का भट्ठा बैठ जाएगा। सुना है
विक्की डोनर ने अच्छी कमाई की है। मगर हम जैसे दर्शक क्या करें जिन्हें नुक्स
निकालने की आदत है।
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*विजय
शर्मा, १५१
न्यू बाराद्वारी, जमशेदपुर
८३१ ००१, फ़ोन:
०६५७-२४३६२५१,
०६५७-२९०६१५३,
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