न बिकने के संकल्प से फूटी कविताएं
- महेश चंद्र पुनेठा
वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण ने हमारे भीतर और बाहर को निरंतर बदला है। हमारे खाने-पीने ,पहनने-लगाने से लेकर सोचने-समझने के तौर-तरीकों में परिवर्तन आया है। संचार क्रांति ने इसको गति प्रदान की है। पुरानी अनेक मूल्य-मान्यताएं टूटी हैं तो अनेक ने नया रूप ग्रहण किया है। आर्थिक समृद्धि जीवन की सफलता का पर्याय बन चुकी है। व्यक्तिवाद चरम पर पहुँच गया है। जहाँ एक ओर समृद्धि बढ़ी है दूसरी ओर बदहाली भी। विविधता का स्थान एकरसता ग्रहण कर रही है। भ्रष्टाचार ने नई बुलंदियों को स्पर्श किया है। एल0पी0जी0 के बढ़ने के साथ-साथ भ्रष्टाचार में भी बढ़ोत्तरी हुई है। शोषण-दमन बढ़ा है। मानवाधिकारों का हनन आम बात हो गई है। बाजार ही सब कुछ तय कर रहा है। सौहार्द कम होता जा रहा है। सब तरफ हिंसा ही हिंसा है। लूट-खसोट चरम पर है। हर व्यक्ति पीढि़यों तक के लिए जमाकर जाना चाहता है। नेताओं-नौकरशाहों-पूँजीपतियों का त्रिकोण पूरी तरह व्यवस्था पर हावी है। कलंकित होकर भी वे सीना तान कर घूम रहे हैं। सभी आगे रहने की सनक में भाग रहे हैं। समाज का विभाजन और तेज हुआ है । एक ओर पूँजीपति ,शहरी मध्यवर्ग और राजनीति में दखल रखने वाला व्यापारी वर्ग है तो दूसरी तरफ ग्रामीण ,भूमिहीन , आदिवासी ,छोटे किसान हैं। भाषा और संस्कृति पर हमले तेज हो गए हैं। नकल की संस्कृति को बढ़ाया जा रहा है। सामूहिकता और सहयोग की संस्कृति खत्म होती जा रही है। चकाचैंध के प्रति अतिरिक्त आकर्षण पैदा हुआ है। अंधविश्वास-रूढि़यों-कर्मकांडांे को बाजार अपने लाभ के लिए महिमामंडित कर रहा है। तीज-त्योहारों -उत्सवों को लाभ का माध्यम बना रहा है। इनकी स्वाभाविकता समाप्त होती जा रही है। लोक उत्सव भी हाईटैक हो गए हैं। उनके पीछे की मूल भावना न जाने कहाँ तिरोहित हो चुकी है। बाजार कमाई के माध्यम हो गया है। नए-नए दिवसों ने अपना स्थान बना लिया है। लोकसंस्कृति को फाइव स्टार होटलों में बेचा जा रहा है।धर्म का भी बाजारीकरण होे गया है। ज्ञान पूँजी का अनुचर हो गया है-गाँठ में पैसा है तो ज्ञान मिलेगा अन्यथा देखते रहो। निजी सफलता और लोभ-लालच को नए मूल्यों के रूप में स्थापित किया जा रहा है क्योंकि ये बाजार के लाभदायक हैं , अपरिग्रह या त्याग जैसे मूल्य तो बाजार को नुकसान पहुँचाते हैं।
इस सबकी गूँज साहित्य में होनी स्वाभाविक है । कोई भी संवेदनशील मन इससे अछूता नहीं रह सकता है। युवा कवि नित्यानंद गायेन का सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ’ अपने हिस्से का प्रेम‘ इस परिवेश की सघन अनुभूति की अभिव्यक्ति है। इस संग्रह में दो तरह की कविताएं हैं पहली व्यवस्था जनित आक्रोश से पैदा तथा दूसरी प्रेम की असफलता की कसक से पैदा । ये एक ऐसे दौर में लिखी गई कविताएं हैं जब ग्लोबलाइजेशन अपना पूरा प्रभाव दिखाने लगा था । उसको लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाएं सत्य साबित होने लगी थी।
इस संग्रह की कविताएं अपने आसपास के प्रति बेचैन एवं चिंतित कवि की कविताएं हैं। कवि का पक्ष एकदम साफ है लूट के इस दौर में कहाँ खड़ा होना है इस बारे में कवि को कोई भ्रम नहीं है।मनुष्य और उसकी मनुष्यता उसका पक्ष है। कवि की तमन्ना है कि वह अपनी कविताओं में देवताओं को नहीं बल्कि सूखे ,झुर्रियों भरे गालों वाले आम आदमी को प्रतिष्ठित करे जिनको हमेशा जाति-भाषा के नाम पर बाँटा गया है - मेरे शून्य आकाश की /सीमाओं से परे /रहते हैं जो /उन्हें मेरा आमंत्रण /स्वागत है तुम्हारा /आकर बस जाओ /मेरे शून्य आकाश में। कवि आश्वस्त करता है- कोई नहीं बाँटेगा यहाँ / तुम्हें किसी /जाति या भाषा के नाम पर। नित्यानंद गायेन एक ईमानदान कवि हैं । शब्दों का जादू चलाने की कोशिश नहीं करते जो महसूस करते हैं उसकी सहज-सरल तरीके से ईमानदार अभिव्यक्ति करते हैं। वह कविताओं को समाज में चेतना के औजार के रूप में देखते हैं इसलिए उनकी कोशिश रहती है कविता इस तरह लिखी जाए जो एक आम पाठक के लिए भी हो। समकालीन कवियों में जो चालकी दिखाई देती है वह गायेन के यहाँ नहीं है। वे कविता के नाम पर अर्थहीन गद्य नहीं लिखते हैं। उनकी कविताओं में आक्रोश भी है और संवेदना भी। अपने चारों ओर की दुनिया को चैकन्नी नजर से देखते हैं और उस पर अपनी संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। इस तरह कविता को एक निजत्व प्रदान करते हंै। ये कविताएं ग्लोबलाइजेशन के दौर की कविताएं हैं । इसके चलते कैसे हमारे मूल्य और मान्यताएं ,चरित्र में बदलाव आ रहा है ,उसकी अभिव्यक्ति है । यही इनका मूल स्वर है।
समीक्ष्य संग्रह में समसामयिक विषयों पर अनेक कविताएं हैं जिनमें आज के जीवन की असलियत व्यक्त हुई है। साथ ही वे कारण जिनके चलते यह दुनिया ऐसी बन गई है। गरीबी ,बेरोजगारी ,मामूली ,अभावग्रस्त जिंदगी और उसकी बेचारगी के चित्र आते है। उनकी कविता प्रश्न पूछती है -बकरे ही क्यों होते हैं कुर्बान। गरीब भी बकरे की तरह ही हैं उनके पास न नुकीले पंजे हैं न पैने दाँत । कवि बकरे की आँखों की भाषा समझने की अपील करता है। कवि की गरीबों के प्रति सहानुभूति ही नहीं बल्कि उनके प्रति सम्मान भी है तभी तो वह उसे ’ योद्धा‘ की संज्ञा देते हुए कहता है- गरीब इस देश का / वीर योद्धा है /वह युद्ध करता है /जन्म से मृत्यु तक .....वह जीवन से लड़ता है /भूख से लड़ता है /अन्याय से लड़ता है......वह लड़ते-लड़ते /मरता है। गरीब की मजबूरी को इन कविताओं में अभिव्यक्ति मिली है। साथ ही उन लोगों की मानसिकता पर जो गरीब को आदमी की श्रेणी में भी नहीं रखते हंैं करारा व्यंग्य किया है-एक आदमी /नहीं-नहीं /एक गरीब की/ माँ को ’फिट‘ पड़ा था। कैसी विडंबना है - अपनी माँ को /तड़पते देखने के आलावा /उसके पास /दूसरा कोई उपाय नहीं था। ’ ........उसे कोई काम नहीं / देता था / उन्हें शक था / कि एक चोर है । आज देश में ‘ अनाज के गोदम भरे पड़े हैं/फिर भी /गरीब भू,ख से तड़प रहे हैं। गरीबी के चलते आदमी इस देश में आत्महत्या करने के लिए मजबूर है - खुदकुशी कर ली एक दिन / शांति चाहिए थी उसे/क्या करता !! कितनी विडंबना है आदमी शांति की चाह में खुदकुशी कर रहा है उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है । क्या इसे हत्या नहीं कहा जाना चाहिए? सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती मंहगाई ने उसके कष्ट को और अधिक बढ़ाया है । कवि कहता है-मेरे आँगन में / अब चिडि़या नहीं आती / दाना चुगने /शायद उन्हें पता चल गया है/ महँगाई का स्तर /और मेरी हालत का। इन पंक्तियों में मंहगाई की विभीषिका का पता चलता है ,जिसका असर केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं है बल्कि पशु-पक्षी भी उससे प्रभावित हैं। भाई-भतीजावाद और रिश्वतखोरी भी इन कविताओं में आई है- सुनते ही इंस्पेक्टर की /भाषा बदल गई /वे सभ्य हो गए/ बोला / आप तो पत्रकार हैं ..../आप तो समाज सेवक हैं ....../आपके दस्तावेज पूरे हैं...../नहीं हैं तो /मैं कर दूँगा /अब सर आप जाइए....। ये पंक्तियाँ भ्रष्टाचार में डूबी पुलिस पर करारा व्यंग्य है।
इससे पता चलता है कि कवि के लिए लोक और लोकमंगल कितना महत्वपूर्ण है। लोक मंगल की आकांक्षा ही उनका ध्यान प्रकृति के बनते-बिगड़ते स्वरूप की ओर खींचती है।फलस्वरूप पर्यावरण की चिंता इन कविताओं में यत्र-तत्र दिखाई देती है-मेरे शहर से अब /सावन रूठ गया है / नदियाँ थम गई हैं एक जगह पर/मैदान बन कर ......भँवरों को /देखा नहीं कब से /फूलों पर मचलते हुए /कुमुदनी अब/शायद किसी फ्लू से ग्रस्त है। प्राकृतिक चीजों से महरूम होती जनता उनके विचार और भाव के केंद्र में है। एक अच्छी बात है पर्यावरण के बिगड़ने के लिए कवि वनों के नजदीक रहने वाले उन गरीब लोगों को दोषी नहीं मानता जो अपनी आवश्यक आवश्यकता के लिए वनों पर निर्भर हैं और उनसे अपनी जरूरत की चीजें प्राप्त करते हैं बल्कि पर्यावरण के नष्ट होने के पीछे सरकार की विशेष आर्थिक जोन जैसी नीतियाँ को जिम्मेदार मानता है। उन्हें यह बात कचोटती है कि एक ओर लोगों को पीने का पानी उपलब्ध नहीं है दूसरी ओर -पानी बिकता है /बाजार में। उनकी आशंका है -आज पानी बिकता है /कल हवा बिकेगी /बाजार में! यह आशंका निर्मूल भी नहीं है। उपभोक्तावाद के इस दौर में जिस तरीके से प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक दोहन हो रहा है , लूट-खसोट जारी है इस तरह की परिस्थितियाँ आने में भी देर नहीं।
प्रकृति के साथ-साथ मानव मूल्यों में आ रहा परिवर्तन तथा क्षरण भी कवि से छुपा नहीं है-साथी अब हाथ नहीं बढ़ाता/साथी अब हाथ खींचता है पीछे। ये बाजारवाद व पूँजीवाद के चलते हो रहा है। सहयोग की भावना समाप्त होती जा रही है । व्यक्तिवाद हावी हो रहा है। व्यक्ति खुद को और अपनी कला को भी बेचने लगा है। पर कवि कहता है - मैं खुद को /और अपनी भावनाओं को /बेच नहीं सकता उनकी तरह । कवि सचेत है वह बिकेगा नहीं क्योंकि उसे पता है-बिक गया तो लिख नहीं पाउँगा /कोई नयी कविता /फिर कभी । यह कवि की चरित्र की दृढ़ता और कवि दायित्व को व्यक्त करती है । यह विशेष बात है कि यह दृढ़ता उसे कविता से मिली है। यह बात सही है कि कविता वही लिख सकता है जो अपने को बिकने से बचाए रखता है क्योंकि कविता सत्यम-शिवम्-सुंदरम की अभिव्यक्ति है। प्रतिरोध है अन्याय-उत्पीड़न-शोषण का। बिका हुआ व्यक्ति यह नहीं कर सकता है। इसके लिए साहस की आवश्यकता होती है। बिके हुए व्यक्ति में इसका अभाव होता है। कविता बाजारवाद से बचकर ही रची जा कसती है। कवि गायेन जानते हैं कि -कम हो रहे हैं आज पाठक कविता के । उनकी दृढ़ता से पता चलता है कि वह यह भी जानते हैं इसके पीछे कारण यही है कि बिके हुए लोग कविता लिख रहे हैं। जब बिके लोग कविता लिखंेगे तो भला उसे कौन पढ़ना चाहेगा। बाजारवाद के दौर में -बेअसर हो चुका है इंसान/उसे अब /कुछ भी / असर नहीं करता /केवल पैसे के अलावा । मनुष्य की संवेदनाएं समाप्त हो चुकी हैं । वह रोबोट में बदल चुका है। पैसे ने उसकी सोचने-बोलने की शक्ति समाप्त कर दी है। उसका सही-गलत का निणर््ाय करने का विवेक समाप्त हो गया है। वह -विकास के लिए /काम करता है । पर उसे यह मालूम नहीं किसका विकास है यह । आजाद देश का मानुष गुलाम नजर आता है। वह देश की आजादी पर भी प्रश्न उठाते हैं। सरकारी दमन के चलते आज क्या हालात हो गए हैं एक लोकतांत्रिक देश के, जिसके नाम पर पूरा तंत्र है उसे डर-डर कर जीना पड़ रहा है । तंत्र ने स्वयं को लोक से ऊपर स्थापित कर लिया है । यहाँ लोक सर्वोच्च नहीं तंत्र सर्वोच्च हो गया है। कितना दुर्भाग्य पूर्ण है - मेरे देश में मुझे अपनी / नागरिकता साबित करनी पड़ती है/ मेरे देश में मुझे /अपनी पहचान साबित करने के लिए /थाने बुलाया जाता है........मेरे देश में मुझे/डर-डर कर जीना पड़ता है। .....मेरे देश में /मैंने कुछ नहीं किया तो/ कामचोरी के आरोप में मुझ पर /पोटा ,मकोका , रासुका लगाया /जाता है/मेरे देश में । ......गली का नल पानी की उम्मीद में/सूखा खड़ा है /और बोतल बंद पानी से / बाजार अटा पड़ा है। युवा कवि गायेन के भीतर निरंकुश राजनेताओं तथा उन सभी ताकतों के प्रति गहरा आक्रोश है जो जनता को छल,बल और कपट से लूटते हैं या लूटना चाहते हैं। उसे हक और न्याय से वंचित करते हैं। कवि नित्यानंद अमरीकी साम्राज्यवाद की नीयत और नीति दोनों को अच्छी तरह समझते हैं तथा उसके दोहरे चरित्र को पहचानते हैं।
कवि गायेन में एक अच्छी बात यह है कि वह खुद से लड़ता रहता है जो कवि और कविता के विकास के लिए जरूरी है। परंतु अपने को शांत करने और भीतर की आग को बुझाने के लिए संघर्ष करने की मुझे आवश्यकता नहीं जान पड़ती है ,वह तो हमेशा जलती रहनी चाहिए। जिस दिन आदमी के भीतर से यह बेचैनी और आग समाप्त हो जाएगी उस दिन बदलाव और बेहतर समाज निर्माण की संभावना भी समाप्त हो जाएगी । यही आग है जो कवि से कविता लिखवाती है। इस संदर्भ में नागार्जुन की कविता ’ कल्पना के पुत्र हे भगवान !‘ की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं- कल्पना के पुत्र हे भगवान! /चाहिए मुझको नहीं वरदान/दे सको तो दो मुझे अभिशाप /प्रिय मुझे है जलन ,प्रिय संताप /चाहिए मुझको नहीं यह शांति/चाहिए संदेह ,उलझन,भ्रांति /रहूँ मैं दिन-रात बेचैन आग बरसाते/रहें ये नैन ......।
नित्यानंद गायेन |
नित्यानंद उन विरले युवा कवियों में से हैं जो जीवन व्यवहार और कविता में एकरूपता के पक्षधर हैं। उन्हें दोहरे मानदंड बिल्कुल पसंद नहीं हैं। उन्हें नागार्जुन और नजरूल इस्लाम सबसे अधिक प्रिय हैं तो उसके पीछे यह कारण भी है। इन कवियों ने जैसा लिखा वैसा ही जीवन में जिया भी। बुद्धिजीवियों की कथनी-करनी के अंतर पर कवि कहता है- अपने चरित्र से विपरीत/वे देते हैं संदेश / समाज को / और समय के हिसाब से/ बदलते हैं पैंतरा / छिपाते हैं सच को / गुमराह करते हैं सबको /पूँजीवाद के ज्वर से ग्रस्त/मेरे देश के बुद्धिजीवी / कवि...लेखक वर्ग/ अब बिकते हैं खुले आम / बाजार के दर में / और बेचते हैं अपने स्वर को। समय के साथ /सब कुछ बदला है/ आदमी भी /और उसका समाज भी ........बदलाव के /इस अंधे दौर में/ बाल मजदूरी करते-करते /खो गया है कहीं बचपन। बाजारवाद के दौर में सभी बदल गए हैं -कवि-पत्रकार-मंत्री-अदालत - आज का कवि /मौसम देख कर/बाहर झाँकता है/ कपड़े देखकर /आदमी का दर्द आँकता है। ......इस देश के इतिहास में/ विद्राही /क्रांतिकारी और /सच्चे वीरों के लिए/ कम जगह बची है। .....बनाता मकान है /सोता है फुटपाथ पर / अनाज भी उगाता है/किंतु भूखा रह जाता है। ......आम आदमी मरता है/ सब्जी बेचता हुआ /सड़क पर चलते हुए। इसलिए कवि का यह प्रश्न जायज है - आजादी किसकी /देश की या बाजार की ?/व्यक्ति के विचारों के साथ ?/ या फिर /गरीबी की ...आतंक की ? पर इसके लिए मध्यवर्ग की मूक रहने की आदत कम जिम्मेदार नहीं है- देख-सुनकर /भूल जाने की /आदत । इन सारी स्थितियों को देखकर एक तड़फ कवि के भीतर है। कवि को अपनी आवाज पर विश्वास है। यह विश्वास बना भी रहना चाहिए-उसके पास कुर्सी है /मेरे पास सिर्फ /आवाज है। कवि ने इस दौर को बेशर्म दौर की संज्ञा दी है।
इस संग्रह में प्रेम पर बहुत सारी कविताएं हैं जिनमें टूटे मन की गहरी कसक दिखाई देती हैं साथ ही व्यंग्य भी। प्रेम में भौतिक रूप से हम किसी से अलग हो भी जाएं पर मानसिक रूप से अलग होना संभव नहीं होता है। अतीत साथ छोड़ता ही नहीं है। एक साथ बिताए क्षण बार-बार याद आते हंै।’ भूलोगे न मुझे उम्र भर ‘ इसी भाव की कविता है-भूलने न दूँगा /तुम्हें /अपने आप /वक्त-बे-वक्त /याद आऊँगा /मंै तुम्हें /हर घड़ी ,हर पल ! बेवफाई का गहरा आघात इन कविताओं में महसूस किया जा सकता है। यादें आज भी उन्हें परेशान किया करती हैं। कवि भूल नहीं पाया अपने प्रेम को- हर पन्ने पर तुम हो / आज भी / क्या आएगा एक दिन / मेरा भी ऐसा /जब मैं /भूल पाऊँगा तुम्हें / जैसे भूले हो /तुम मुझे। असफल प्रेम की पीड़ा इन कविताओं में सिद्दत से महसूस की जा सकती है । प्रेम के गहरे आघात दिखाई देते हैं- तेरे प्रेम के छल ने / शकुनी के पासों की तरह/छकाया है मुझे। कैसा दौर है यह इसमें प्रेम भी मजबूरी बनने लगा है। पे्रम को वस्तु की तरह बदलने वालों पर गायेन की यह कविता अच्छा व्यंग्य है- मैं रहा तुम्हारे साथ/तुम्हारे जीवन में / एक अभ्यास पुस्तिका की तरह/ तुमने लिखा /बार-बार लिखा /फिर मिटाया ,फिर लिखा/ फिर मिटाया / अब पन्ने फट गए हैं / और पुस्तिका भी भर गयी है/ और अब तुम्हें / एक नयी पुस्तिका की जरूरत हैै । बाजार का प्रभाव आज के प्रेम पर भी पड़ रहा है। प्रेम भी व्यापार बनता जा रहा है। उसमें भी नफा-नुकसान देखा जा रहा है।
भाषा को सजाने-संवारने-कसने के लिए गायेन अतिरिक्त प्रयास नहीं करते उनका विश्वास अपनी बात पाठक तक सहज-सरल ढंग से पहुँचाने में अधिक लगता है। गायेन की कविताओं में बिंब ,प्रतीक या रूपक कम ही दिखाइ देते हैं शायद कवि के मन में विचारों का उबाल या कहन का दबाब इसका कारण हो। वे व्यंजना -लक्षणा का सहारा कम लेते हैं अभिधा में ही अपनी बात कहते हैं। जिसके चलते कुछ कविताएं एकदम सपाट हो गई हैं। कुछ कविताओं में उनकी शब्द स्फीति भी हो गई है वह जहाँ कविता समाप्त कर रहे हैं उससे पहले भी समाप्त की जाती तो कविता अपने पूरे आशय को स्पष्ट कर रही हैं। कहीं -कहीं कवि दुविधाग्रस्त हो पूछता है- क्या सही क्या गलत/ कैसे करूँ मूल्यांकन /क्या सिर्फ /बेचना और बिकना ही सत्य है आज? कवि को इस दुविधा से निकलकर अपनी विश्वदृष्टि विकसित करनी होगी । कुछ कविताएं अपने आप से बातें करती हुई भी हैं। नित्यानंद अपनी कविताओं में जनपद की बात तो करते हंै पर अभी जनपद अपने पूरे भूगोल के साथ नहीं आ पाया है जैसे कि उनके प्रिय कवियों नागार्जुन और नजरूल के यहाँ आता है। अभी इस कवि को लंबी यात्रा तय करनी है । हमें इस कवि से बहुत अपेक्षा है क्योंकि इस कवि के भीतर एक गहरी संवेदनशीलता है। गरीब , असहाय ,पीडि़त जन से गहरा लगाव है । अपने आसपास को देखने वाली चैकन्नी नजर है तथा गलत को गलत और सही को सही कहने का साहस है । गायेन राजा के दरबार में रहकर ,राजा की आलोचना करने में विश्वास करने वाले कवि हैं इस संदर्भ में विदुर को अपना आदर्श मानते हंै। ये कविताएं जीवन-सच को जानने की प्रक्रिया में फूटी हैं। कवि जितना अपनी प्रेमिका को चाहता है उतना ही बाहरी दुनिया को भी । वह गरीबों -असहायों से प्रेम करता है।
इन कविताओं को पढ़ने के बाद मैं गायेन के बारे में युवा कवि रजत कृष्ण की इस राय से पूर्णतया सहमत हूँ कि नित्यानंद गायेन इस मायने में कहीं भी गुमराह नजर नहीं आते कि उन्हें किनके पक्ष में खड़ा होना है और किनसे दो-दो हाथ करना है। यह एक अच्छे कवि के लिए ही नहीं बल्कि अच्छे इंसान के लिए भी यह जरूरी है। यदि पक्ष साफ है तो अन्य बातें तो निरंतर अभ्यास से सीखी जा सकती हैं। इस कवि में सीखने की एक ललक हमेशा दिखाई देती है। मनुष्य हो या प्रकृति वह सभी से सीखना चाहता है। यही खासियत है जो इस कवि से और अधिक गंभीर लेखन की आशा जगाती है।
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अपने हिस्से का प्रेम ( कविता संग्रह), नित्यानंद गायेन
प्रकाशकः संकल्प प्रकाशन बागबाहरा ,जिला:महासमुंद ( छ0ग0) मूल्यः पचास रुपए
महेश चंद्र पुनेठा |