Tuesday, August 28, 2012

विमल के कहानी संग्रह 'डर' पर आदित्य विक्रम सिंह


अब बिगड़े पे क्या शर्मिन्दगी

आदित्य विक्रम सिंह

       

1991, या कह ले उदारवाद, किसी आँधी की तरह आया और तूफान की तरह गया नहीं, यहीं, भारत में ठहर गया जैसे आँखो में किरकिरी ठहर जाती हो और तब तक आँख नही छोड़ती जब तक आँख खराब न हो जाये, मुश्किल इसका आना और ठहरना न था अपितु इसका स्वीकार मुश्किल था, जैसे कोई गुनाह का स्वीकार अमूमन होता है। विकास के नाम पर जो कुछ होता रहा वह खुल चुका है पर इन उदारवादी नीतियों तथा इसके परिणामों का विरोध करने वाले कम न थे वे बड़ी बड़ी बातें करते रहे जो दूसरो को तो क्या खुद उन्हें भी समझ में नही आती थी, कहानीकार लाल कहानियों के अंदाज में सीधे विश्व बैंक पर हमला करते थे जैसे वह कोई जमींदार के घर जितनी आसान मजिंल हों कोई कथाकार विश्व बाजार को ऊँट समझ समझाकर खुश हो ले रहा था तो कोई बाजार की आलोचना करने के बजाय दैनन्दिन जरूरत के सामानों की आलोचना में लगा हुआ था। इस तरफ किसी का ध्यान न था कि इस उदारवाद ने हमें कितना और किस कदर नुकसान पहुँचाया है यह तब देख पाते है जब हम उन हकीकतांे को स्वीकार करते है जो हमारे देश और समाज को छीलने में लगी हुई थी। नयी सदी के पहले दशक में जो कुछ नये कथाकार इस सत्य के रू-ब-रू हुये उन्होंने इसके तल तक जाने की कोशिश की और इस तरह हमारे सामने एक सर्वथा नयी संवेदना वाले रचनाकारों की पीढ़ी उपस्थित हुई  जिनमें विमल चन्द्र पाण्डेय का एक खास स्थान है।
     विमल चन्द्र के पहले कहानी संग्रह ‘‘डर’’ को भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ है। विमल के संग्रह ‘‘डर’’ की विशेषता यह है कि कई रंग रूप की कहानियाँ हमारे समाज के विघटन के तह मंे जाती हुई दिखती हंै। विमल की कहानियों में पतन का अनूठा स्वीकार है जिस पतन की गर्त में आर्थिक सुधार के नाम पर ढ़केल दिया गया। संग्रह के शीर्षक वाली कहानी ‘‘डर’’ हमारे समाज के विघटन के स्तर को दिखाने के लिए एक बड़ा उदाहरण है। कहानी के पहले पाठ से यह एक मनोविज्ञान की कहानी प्रतीत होती है पर परत दर परत कहानी का पाठ जरूरी है। कहानी की शुरूआत लड़की के आकार-प्रकार से शुरू होकर उसके स्त्रियोचित डर के वर्णन से होती है मसलन चूहे, तिलचट्टे, मकड़े अंधेरे आदि से डरना पर यह गौरतलब है कि हम अदृश्य चीजों से ज्यादा डरते है उसके साथ भी यही है- ‘‘उन चीजों से उसे ज्यादा डर लगता था जिन्हें उसने सुना था, देखा नहीं था बनिस्बत उनके जिन्हें रोज देखती थी।’’
     एक रात पिता की तबीयत ज्यादा खराब होने पर उसे अपने डर पर काबू पाते हुए बाहर जाना पड़ता है और वह गलती से डाक्टर के घर जाने के बजाय एक गलत घर में पहुँच जाती है और वहाँ भी गलती से उसके साथ गलत होने लगता है परन्तु वह किसी तरह अपनी जान बचाकर उसी कब्रिस्तान में छुपती है जहाँ का नाम सुनकर रोगटें खड़े हो जाते थे, यहाँ उस आदमी से जो डर है उसके आगे भूत, प्रेत कब्र आदि का डर हल्का पड़ जाता है। यह है कहानी का सामान्य पाठ पर इस कहानी को ध्यान से पढ़ेगे तो पायेंगें कि यह हमारे समाज का सामान्य सत्य है, पुरूष अब भी समाज का थानेदार है वो जब चाहे किसी लड़की के पीछे पड़ सकते है हम जो बुद्धिजीवी है वे इस महान पुरूषोचित हरकत की आलोचना न कर बगले झाँकने लगते है और बेशर्मी से इस कहानी को मनोविज्ञान की कहानी बताने लगते है।
     विमल की अधिकतर कहानियों का विषय युवाओं के जीवन शैली और जीवन के संघर्ष के इर्द गिर्द है। संग्रह की कहानी है ‘‘एक शून्य शाश्वत’’ इस कहानी में टिपिकल मध्यवर्ग के संस्कारों वाला युवक वर्ग है जो सही शिक्षा -दीक्षा और रोजगार न होने के कारण परेशान है फिर बुद्धि लगा कर बाबा बनने का काम शुरू करते है और धँधा चल जाता है। यह कहानी भी समाज के पतन को रेखांकित करती है, कि कैसे आज का समाज आत्मा-परमात्माऔर महथंई के जाल में फँसा हुआ है। तीन युवा, शाश्वत, सुनील और मल्लिका मिलकर एक संगठन बनाते है जो प्रवचन देने का काम तथा अन्य धार्मिक काम करते है। धीरे-धीरे शाश्वत परोपकार और सेवा भाव में लग जाता है जबकि सुनील और मल्लिका जीवन के योग पक्ष की ओर मुड़ जाते है। कहानीकार ने युवाओं की भटकन के साथ साथ धर्म के नाम पर होने वाले रोजगार को अच्छेे से पकड़ा है। धर्म, प्रवचन, और बाबावाद के प्रति जो रूझान युवाओं में तस्दीक की गयी है वह काबिले तारीफ है आज कल समाज में युवा साधु और साध्वियों की बाढ़ आ गयी जैसे कि गोया सन्यास जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम हो। हमारे यहाँ पुराने  समय से सन्यास की परम्परा रही है पर एक उम्र के बाद लेकिन आज धर्म के ग्लैमर ने सन्यास लेने को मजबूर कर दिया है। यह कहानी सीधे हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी चोट करती है। आज कल तकनीकि,
विमल चंद्र पाण्डेय
डाक्टरी, प्रबंधन को ही शिक्षा का चरम मान लिया गया है और शिक्षा में जो वैज्ञानिकता होनी चाहिए थी वो हमारे समाज की शिक्षा व्यवस्था से सिरे से नदारद है। इस वैज्ञानिकता का जो अभाव है वो हमें यहीं पहुँचाता है कि अच्छे अच्छे डिग्रीधारी लोग धर्म के पाखंड में उलझे रहते है।
     इस कहानी में हमारे समाज की एक और मुश्किल रेखांकित है वो है स्त्रियों के प्रति पुरूषों का रवैया। मल्लिका द्वारा शाश्वत को छोड़ दिया जाना और सुनील का साथ सम्वरण करना इसी पुरूषोचित मानसिकता का उदाहरण है, जिसमें यह मान लिया गया है कि स्त्रियाँ सफलता इत्यादि देखभाल  कर पे्रम करती है। विमल ने इस कहानी ने प्रेम के वातावरण को दिखाने के लिए बार-बार एक शब्दावली प्रयोग की है- ‘‘हल्के प्रकाश में गाढ़ा प्रेम’’ प्रकाश वही  रहता है, प्रेम वही रहता है प्रेमिका वही रहती है पे्रमी बदलता रहता है और ऊपर से प्रेमिका की समझ की दाद देनी पड़ेगी जो प्रेमी बदलते समय यह जमुला कहती है कि ‘‘प्रेम सिर्फ आपसी समझ माँगता है।’’ मतलब अब प्रेम भावना का नहीं बुद्धि का विषय हो गया है।
     युवा मन के विचलन के साथ-साथ आज के समय में रंगमच की दशा और दिशा के रेखांकित करती कहानी ‘‘रंगमंच’’ है। युवक एक छोटे से शहर जहाँ रंगमंच का कोई मतलब नहीं दिल्ली आ गया अपने सपनों को पूरा करने। पर वहाँ जाकर उसे महसूस होता है कि नाटक, रगंमंच को लेकर जो अवधारणा उसकी वहाँ के लोगों के प्रति थी गलत थी। मूलतः रंगमंच की आज के समय जो हालात है उस ओर ध्यान दिलाती है यह कहानी। विमल की कहानियों की एक बड़ी विशेषता सबधों और संवेदनाओं की गहरी पड़ताल करना। संग्रह की दो कहानियाँ सबधों और संवेदनाओं पर केन्द्रित है ‘‘स्वेटर’’ और ‘‘चश्मे’’, हांलाकि संग्रह की अन्य कई कहानियों में भी संबधों की बात चीत है पर इन दोनों कहानियों में पिता-पुत्र के संबधों की चर्चा है अतः इन पर साथ में बात करना ठीक रहेगा पहले ‘‘स्वेटर’’ का जिक्र। अध्ययन के लिए विदेश जाता लड़का, जाने की तैयारी और जाने के बाद की फिक्र में माँ बाप। कहानी सामान्यतः माँ बाप की स्नेहगत चिताएँ और उपदेश जिसे युवा वर्ग अपने दायरे का अतिक्रमण समझते है और हमेशा उसकी कसमसाहट महसूस कर उससे मुक्त होना चाहते है को दिखाती है। कुछ रिश्ते ऐसे भी होते है जिनमें स्नेह का बहुत प्रदर्शन नहीं होता वह गाहे-बगाहे मौकों की तलाश मे रहता है जब स्नेह प्रदर्शित हो। एक उम्र के बाद पिता- पुत्र का रिश्ता भी इस दायरे में आ जाता है। पिता का भागते हुये बेटे का स्वेटर लेकर आना और तब बेटे का ये सोचना- ‘‘स्थिर गम्भीर आँखों और लम्बी साँसो के बीच पापा ने कितनी चिन्ताएँ छिपा रखी है। उसका मन करता है अपने दिल में पापा के लिए छिपा सारा प्यार जाहिर कर दे।’’
     इसी धरातल पर दूसरी कहानी है ‘‘चश्मे’’। जिसमें एक भारतीय पिता की छवि जो एक समय तक हिटलर की भूमिका में रहते है और पूरे घर में उनका खौफ रहता है। बीबी बच्चे सब आतंकित फिर बच्चों द्वारा बाहर जाना। कहानी इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि पिता को नये जमाने के अनुसार ढलते हुए दिखाया गया है। उम्र के साथ चइमे का नंबर ही बदलता है पर यहाँ पूरा फ्रेम भी बदल रहा है।  
     आज के युवा कहानीकारों पर यह आरोप लगता है कि वे अपने जड़ से कट रहे है आप उनको पढ़ते हुए उनके गाँव गिराँव को नहीं पकड़ सकते  इस मामले में विमल अन्य कहानीकारों से अलग है। बनारस उनकी हर दूसरी कहानी में मौजूद है प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से। बनारसी मिजाज में रची पगी कहानी ‘‘मन्नन राय गजब आदमी है’’। यह कहानी बुजुर्ग होने के अहंकार को सेलिबे्रट करने वाली है। माॅरल पुलिसिंग मे लगे मन्नन राय के पक्ष में लेखक का एक ही वाक्य कहानी को अनर्थ कर देता है। लेखक पहली दूसरी की पंक्ति में लिखता है कि वो मन्नन राय का प्रशंसक है। मन्नन राय माॅरल पुलिसिंग के तहत दो रूपों में सामने आते है एक तो समाज सुधारक या कहें दबंग समाज सुधारक का तो दूसरे तरफ वो वही काम करते नजर आते है जो संघियों को वैलेन्टाइन डे के आस पास होता है। वैसे वे समाज की बातें करते है, सुधार की बातें करते है पर एक प्रेमी युगल को जरा सी अतंरगता में देखते है थप्पड़ मार देते है। कथा का वह असली नायक, जिसे कहानी मे विलेन का दर्जा दिया गया है उन्हे देशी कट्टा दिखा देता है मन्नन राय गायब हो जाते है पर गनीमत यह देखिए कि बदमाश पात्र बस उन्हे तमचां दिखाता है और थप्पड़ मारे जाने के बाद भी कोई चोट नहीं पहुँचाता। अगर मन्नन राय समाज के हो रहे बदलाव से चितित हो गये थे तो उन्हें किन्ही और कारणों से गायब होना चाहिए था प्रेम के दुश्मन के रूप में  नहीं हांलाकि लेखक ने प्रेम के दृश्यों का वर्णन ऐसे अंदाज मे किया कि वो मन्नन राय को अश्लीलता के खिलाफ खड़ा करवा कर उनका बचाव कर सकता है पर हमें भटकना नही चाहिए मूल मुद्दा प्रेम का ही है।
     सोमनाथ का टाइम टेबलसंग्रह की सबसे अच्छी कहानी मुझे लगती है। और वह इस अर्थो में भी अच्छी कहनी है कि आज के समय उत्तर प्रदेश में दलितों की स्थिति पर सीधा बयान है। कहानी में सोमनाथ है जो कि बोर्ड परीक्षा की तैयारी में जुटा है। प्रेमचन्द के बड़े भाई साहबनुमा सोमनाथ का भी एक बड़ा भाई है जो खुद तो गली के शोहदों में गिना जाता है पर अपने छोटे भाई को हरदम पढ़ने और अनुशासन के लिए मारता डाँटता है। ऐसे ही एक दिन सलोनी सोमनाथ के जीवन में आ जाती है और उसके बाद सोमनाथ के जीवन में सब तरफ बसन्त ही नजर आता है- ‘‘अब नालियों में मुँह मारती’’ सुअरें देखकर उसे गन्दा नहीं लगता। पर प्रेम सफल हो जाए तो प्रेम कहाँ। सलोनी पर कुछ गिद्ध भी मँडरा रहे थे जिसमें उसके भाई के दोस्त भी शामिल थे जो सलोनी पर कुदृष्टि रखते थे। इन सबसे सलोनी को बचाते व खुद भी बचते हुए सोमनाथ बोर्ड की तैयारी के साथ-साथ प्रेम को भी जी रहे थे। पढ़ाई  के टाइम टेबल के साथ-साथ जीवन के टाइम  टेबल में भी लगातार बदलाव आ रहा था। एक बानगी देखिए-
     ‘‘सलोनी उसकी जिन्दगी की हर परत में शामिल हो चुकी थी कई कठिनाइयों को देखते हुए उसने कुछ दिनों बाद एक नये टाइम टेबल की रचना की जो पिछले टाइम टेबल से कुछ बिन्दुओं पर अलग था।
     सुबह चार बजे-जागना
     चार से साढ़े चार-सलोनी के गाए गीत वाकमैन लगाकर सुनना, रात आठ से साढ़े आठ- सलौनी के गाने वाकमैन में सुनना’’
     आज भी समाज में सवर्णो की दलितों के प्रति जो मानसिकता होती है उसको भी इस कहानी में बड़ी संजीदगी से दिखाया गया है। चूंकि सलोनी एस0सी0 है तो  उसे सारे बड़े लोगों मसलन, शुक्ला जी सिंह अंकल और तिवारी जी लोगों के मकान के साथ अपना मकान बनवाने का अधिकार नही। पहले के जमाने में एक विशेष जाति को गाँव के दायरे से बाहर बसाने का प्रचलन था। कुछ लोग आज 21 वीं सदी में उस को प्रचलन को लागू करवाने में शिद्दत से लगे रहते हैं। मकान बनने से रोकने के लिए कहानीकार ने जिस फार्मूले का प्रयोग दिखाया है वह फार्मूला आज के समाज में बहुत कारगर सावित हो रहा है। किसी जमीन पर कब्जा करना हो तो उस जमीन से किसी भगवान  को उत्पन्न करवा दे या प्रकट करवा दे फिर देखंे किसी की क्या मजाल उस जमीन पर कुछ करवा ले क्या पुलिस क्या कचहरी। फिलहाल जमीन पर सलोनी का मकान नहीं बन सका और उसे मुहल्ला छोड़ना पड़ता है पर आज चाहंे जितना सामाजिक समरसता की बात कर पर इस यथार्थ को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम आज भी कितनी निष्ठा से जाति-पाँति और धर्म के नियमों का पालन कर रहे हैं।
     संग्रह की एक कहानी है ‘‘सिगरेट’’ जैसा कि नाम से जाहिर है कि कहानी सिगरेट के सम्बन्धित होगी और सिगरेट अच्छी चीज नही मानी जाती तो कहानी भी इस बुरी आदत है पर है। विमल की ये बड़ी खासियत है कि बुराइयों को भी उसी जज्बे से स्वीकार करते है और बड़ी साफगोई से बात करते है।
     संग्रह की अन्य उल्लेखनीय कहानियों में उसके बादलकहानी भी है। विमल अपनी कहानियों में अपरिभाषित संबंधो की परतों की खोज-बीन भी करते है। पिता का मौसी के साथ संबंध पुत्र को हमेंशा गलत लगता है पर एक दिन पिता और मौसी के बीच हुए पत्राचार को पढ़ता है तो उसे समझ में आता है कि माँ के लिए पिता और मौसी ने अपने प्यार की कुर्बानी दी। तब उसका नजरिया जो कि पिता के प्रति था वह बदल जाता है।
     संग्रह की एक और अच्छी कहानी ‘‘जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी च’’ है जिसमें पात्र है, लेखक विमल, एक नायक कृष्ण मुरारी और नायिका वेदिका कहानी विश्वविद्यालयी परसिर के अविश्वविद्यालयी माहौल के बीच शुरू होती है लेखक ने इस कहानी में युवकों की आधिकतर समस्याओं को उठाया है, प्रेम, बेरोजगारी, हीनताबोध, आदि पर इसके साथ ही साथ मीडिया की फील्ड में जाने में होने वाले संघर्षो और मीडिया की विषय जो हमारी गफलत होती है सबको व्यक्त करता है। लेखक ने कहानी को प्रेम कहानी बताया है और प्रेम करते हुए दिखाया भी है पर प्रेम की सफलता के लिए प्रेमीका सफल होना जरूरी है अतः प्रेम कहानी खत्म। पर इस प्रेम के साथ-साथ पत्रकारिकता के क्षेत्र के ग्लैमर की पीछे के अधंकार पर विमल ने प्रकाश डाला है। कहानी इस सबके साथ साथ जिस बात को बड़ी संजीदगी से पकड़ती है वह है ‘‘जैक’’ आज हम अगर किसी भी नौकरी की बात करते है तो सामने वाला सबसे पहले हमारे ‘‘जैक’’ के बारे में पूछता है जैसे सबसे बड़ी योग्यता वही हो। फिलहाल आम धारणा है कि  किसी बड़े वाहन के टायरों को चेंज करने के लिए ‘‘जैक’’ का प्रयोग होता है पर यह शब्द कैसे अपना अर्थ विस्तार कर रहा है यह सोचने की बात है अब सिर्फ ‘‘जैक’’ वाहन के लिए नहीं बल्कि जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है।
     संग्रह की एक अनूठी विशेषता मुझे दिखाई पड़ती है वह है कहानीकार का लगभग हर कहानी में स्वयं का मौजूद रखना, जिससे आपको हर कहानी की सत्यता के विषय में किंचित मात्र सोचना ना पड़े। आज के दौर में कहानी  में जहाँ भाषा का खेल चल रहा है वहाँ विमल मजबूत अन्तर्वस्तु के साथ मौजूद है हालाकि गाँव इनकी कहानियों में भी नदारद है पर शहर में क्या लोग नही है और उनका जीवन जीवन नही है?
     संग्रह की अन्य कहानियाँ भी लेखक के उज्जवल भविष्य की ओर मुतमईन करती है। ‘‘वसीम बरेलवी’’ का एक शेर याद आ रहा है-
     जहाँ रहेगा वहाँ रोशनी लुटाएगा
     किसी चराग का अपना मकाँ नही होता।।’’
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समीक्ष्य कृति- डर’                               आदित्य विक्रम सिंह
लेखक- विमल चन्द्र पाण्डेय         शोध छात्र (हिन्दी)
भारतीय ज्ञानपीठ                 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
मूल्य-130 रूपये                 वाराणसी,
                              मो0 नं0-8010583076,
                                     9532230976

Friday, August 24, 2012

नई फिल्म 'विक्की डोनर' पर विजय शर्मा


कर दान, महा कल्याण
विजय शर्मा
विजय शर्मा
भारतीय समाज भयंकर संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह बहुत भ्रमित है। इस जंक्शन पर उसे कुछ भी परोसा जा सकता है। सोशल सर्विस के नाम पर कुछ भी। समाज की मानसिकता ऐसी है कि समाज सेवा के नाम पर कुछ भी ऊल-जलूल उसके सामने रखा जा सकता है और वह उसे लपक कर लेगा क्योंकि सोशल कॉज के नाम पर वाहवाही मिलती है। सोशल कॉज के नाम पर गंभीर कामों का मजाक बनाया जा सकता है। आप समाज सेवा के बल पर रातोंरात धनी बन सकते हैं। सोशल सेवा में बहुत मान-समान और पैसा है। सोशल सर्विस के नाम पर हिन्दी सिने दर्शकों के सामने एक फ़िल्म परोसी गई है ‘विक्की डोनर
विक्की डोनर का विक्की एक मस्तमौला, हैप्पी गो लकी लड़का है जो बहुत सारे पंजाबी युवाओं की तरह जीवन मस्ती में बिता रहा है। लाजपतनगर के निवासी विक्की की विधवा माँ (डॉली अहलुवालिया) ब्यूटी पार्लर चला कर घर-गृहस्थी की गाड़ी खींच रही है। बूढ़ी दादी सदैव विक्की का पक्ष लेती है। उसके उल्टे-सीधे विचारों को जायज ठहराती है। सास-बहु में दिन भर नोंक-झोंक चलती है मगर शाम होते ही वे हमप्याला-हमनवाला बन अपने सुख-दु:ख साझा करती हैं। जाम खोल कर अपनी छोटी-सी महफ़िल सजाती हैं। डॉली ने बहुत सहज और अच्छा अभिनय किया है । पूरी कॉलोनी रिफ़्यूजियों की है जिन्हें मेहनत करने से कोई गुरेज नहीं हैं मगर विक्की ये छोटे-मोटे काम नहीं करना चाहता है उसके सपने बड़े हैं। वह शानो-शौकत की जिन्दगी बिताना चाहता है। उसे किसी बड़े अवसर की तलाश है।
डॉक्टर बलदेव चड्ड़ा संतान की ओर से नाउम्मीद जोड़ों के चेहरों पर हँसी के फ़ूल खिलाता है। मगर कुछ दिनों से उन्हें डोनर का टोटा पड़ा हुआ है। वे स्पर्म्स का व्यापार करते हैं जो मंदा चल रहा है। वे डोनर से स्पर्म्स ले कर नि:संतान जोड़ों के यहाँ बच्चे पैदा कराते हैं। विज्ञान का फ़ायदा उठाते हुए हर दम्पति ऐश्वर्या राय-सी सुंदर कन्या और सचिन जैसा बेटा चाहता है, जिसका वायदा और आपूर्ति डॉक्टर चड्ड़ा करते हैं। अब उन्हें ऐसे डोनर की तलाश है जो आर्य रक्त का हो। क्या हम इस आर्य रक्त के कारण काफ़ी नुकसान नहीं उठा चुके हैं जो आज के युग में पुन: इसकी बात की जा रही है? इस खतरनाक बात को लोगों के सामने रखने का क्या औचित्य है? जहाँ पहले से ही इतनी नफ़रत है वहाँ आर्य रक्त की बात करना आग में घी डालना है। वैसे डॉक्टर साहब नक्शा दिखा कर यह सिद्ध कर देते हैं कि सब मिश्रित रक्त के ही हैं। वे कुछ ऐसा चारा डालते हैं कि विक्की उनके लिए काम करने को राजी हो जाता है हालाँकि इसके लिए उन्हें काफ़ी पापड़ बेलने पड़ते हैं। वे विक्की को यह समझाने में सफ़ल हो जाते हैं कि वह कितना बड़ा और महान काम कर रहा है। वर्ल्ड हैल्थ ओर्गनाइजेशन भी बाजारवाद को बढ़ावा दे रहा ह तो क्या आश्चर्य। फ़िल्म वर्ल्ड हैल्थ ओर्गनाइजेशन एक कोटेशन से शुरु होती है ।
जब डोनेशन के लिए विक्की क्लिनिक पहुँचता है तो विचित्र स्थिति आती है वह यह आसान-सा काम नहीं कर पाता है। डॉक्टर चड्ड़ा के पास सारी समस्याओं का रामबाण है। यह सीन देखते हुए मुझे अचला शर्मा की कहानी उस दिन आसमान में कितने रंग थेयाद आई उन्होंने इस तनाव की स्थिति का बहुत संवेदनशील चित्रण किया है वैसे वहाँ स्थिति और वातावरण भिन्न था। खैर..दोनों का धंधा चल निकलता है। डोनेशन भी आ-मद-नी का जरिया है। पहले-पहल माँ को आश्चर्य होता है फ़िर ऐशो-आराम की चीजें जरूरत बन जाती हैं। कोई उनकी तह में नहीं जाता है। आती लक्ष्मी किसे बुरी लगती है।
इसी बीच विक्की को एक पढ़ी-लिखी बैंक में काम करने वाली लड़की आशिमा रॉय  से प्रेम हो जाता है। फ़िल्म देखते हुए मैं अँगुली नहीं धर पा रही थी कि आखिर यह सुंदरी कौन है। बाद में याद आया अरे यह तो सैमसंग गैलेक्सी और फ़ेयर एंड लवली के विज्ञापन में दीखती/चमकती (यामी गौतम) है। यहाँ भी वह चमकी है। अपने खूबसूरत अभिनय से इस विचार को ध्वंस करती है कि विज्ञापन के लिए काम करने वाले लोग फ़िल्म में अच्छा अभिनय नहीं करते/सकते हैं।
सबसे अधिक मनोरंजक और स्वाभाविकता वाले दृश्य वो हैं जहाँ बंगाली परिवार और पंजाबी परिवार की एक दूसरे से वैवाहिक संबंध बनाने को लेकर आपत्ति जताई जाती है। पर जब मियाँ-बीवी राजी तो क्य करेगा काजी। विभिन्नता में एकता को दर्शाते हुए दोनों परिवार एक हो जाते हैं। मजेदार जाने-पहचाने संवाद है, अदायगी भी उतनी ही मजेदार है। नायक नायिका की धूमधाम से शादी हो जाती है। वह फ़िल्म क्या जिसमें वियोग और परेशानी न हो। विडम्बना है कि विक्की दूसरों के घरों को गुलजार कर रहा है मगर उसकी पत्नी माँ नहीं बन सकती है। इसी मुद्दे पर बहस होती है और आशमी को पता चलता है कि उसक पति स्पर्म्स डोनर है। यही उसकी कमाई का जरिया है। वह इस बात से इतनी आहत नहीं होती है कि विक्की यह काम करता है। उसे यह बात बहुत आहत करती है कि उससे यह बात विक्की ने छिपाई जबकि शादी के पहले आशमा ने अपने जीवन की सारी बातें यहाँ तक कि वह तलाकशुदा है उसे बता दी थी। बैंक में कार्य करने वाली बिंदास लड़की यह पचा नहीं पाती है और विक्की को छोड़ कर अपने घर कलकत्ता चली जाती है। बिंदास और नौकरी पेशा आत्मनिर्भर लड़कियाँ भी जब अपना घर छोड़ती हैं तो वापस अपने पिता के घर जाती हैं अकेली और स्वतंत्र रहने की बात उनके दिमाग में नहीं आती है।
विक्की के डोनर होने की बात मुहल्ले-बिरादरी में फ़ैल जाती है। उसकी थू-थू होने लगती है। वह डॉक्टर के यहाँ जाना बंद कर देता है। उसकी आर्थिक स्थिति गिरने लगती है। वियोग में वह बहुत दु:खी है। विक्की की माँ की झाड़ खकर डॉक्टर चड्ड़ा विक्की के परिवार को फ़िर से एक करने की योजना बनाता है। आज के बाजारवाद के युग में किस समस्या का हल नहीं है। वह अपनी क्लिनिक की सालगिरह मनाने की योजना बनाता है जिसमें वह उन सब परिवारों को आमंत्रित करता है जिनके यहाँ विक्की के स्पर्म दान ने गुल खिलाया है। ऐसे ५३ परिवार हैं (अब तक छप्पन क्यों नहीं हुए!) इस पार्टी में वह विक्की और आशमा को भी आमंत्रित करता है। आशमा इन बच्चों को देख कर अपने पति की महानता से अभिभूत हो जाती है। मगर कहानी यहीं नहीं खतम होती है। विक्की की कृपा से एक और बच्ची पैदा हुई है जिसके माता-पिता दुर्घटना में मर चुके हैं और बाबा-दादी इतने बूढ़े और अशक्त है कि बच्ची का लालन-पालन नहीं कर सकते हैं अत: बच्ची को अनाथालय में रख देते हैं। इसी बच्ची को विक्की और आशमा गोद लेते हैं। सोशल सर्विस के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है। विक्की पत्नी की अनुमति से अपना स्पर्म्स डोनेशन का काम जारी रखता है। बोल सियावर रामचंद्र की जय और फ़िल्म समाप्त हो जाती है। मेरे मन में कुछ सवाल छोड़ जाती है।
आयशा पढ़ी-लिखी है, डॉक्टर भी पढ़ा-लिखा होना चाहिए। जब पता चलता है कि आशमा माँ नहीं बन सकती है तो एक बार भी सरोगेट मदर की बात क्यों नहीं सोची जाती है जबकि हिन्दी में इस विषय पर फ़िल्म (सलमान खान, प्रीति जिंटा, महिमा चौधुरी) बन चुकी है। तब विज्ञान को क्यों नहीं याद किया जाता है जबकि विज्ञान के चमत्कार को फ़िल्म स्वीकार कर रही है। सारी फ़िल्म में स्पर्म चारों ओर फ़ैले हुए हैं। स्पर्म डोनेशन से संबंधित कई बातों को फ़िल्म नहीं दिखाती है। वह नजर अंदाज ही नहीं करती है उनकी उपेक्षा भी करती है। यह एक कानूनी प्रक्रिया है। इसके कानूनी पक्ष को फ़िल्म नजर अंदाज करती है अर्थात फ़िल्म दर्शकों को गुमराह करती है। क्या यह उचित है? कानून कहता है कि डोनर और रिसीपियंट की पहचान गुप्त रखी जाती है। क्योंकि ऐसा नहीं करने से तमाम तरह के सामाजिक, भावात्मक, आर्थिक परेशानियाँ खड़ी हो जाएँगी। सरोगेट मदर के केस में पूर्व लिखित करारनामा रहता है। अधकचरी जानकारी काफ़ी खतरनाक साबित हो सकती है। फ़िल्म में विक्की बहुर भावुक व्यक्ति है पर इतने सारे अपने बच्चों को देख कर खास प्रतिक्रिया नहीं करता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति क्या नहीं कर गुजरेगा जबकि उसकी अपनी पत्नी बच्चे पैदा करने में असमर्थ है।
फ़िल्म भारत में स्पर्म डोनेशन की प्राचीन पद्धति की बात करती है। जबकि दोनों बिल्कुल अलग बातें हैं। प्राचीन काल में नियोग पैसे के लिए नहीं होता था। अपनी मर्जी अथवा दूसरों की इच्छा पर सहमत हो कर होता था। पुरुष परिवार का कोई सदस्य अथवा समाज का सम्मानित व्यक्ति होता था। उसकी खूबसूरती नहीं देखी जाती थी। व्यास को नियोग के लिए राजी करते समय उनके शारीरिक सौष्ठव को प्राथमिकता नहीं दी गई थी, वे राजकुमार भी नहीं थे। असल में तब यह बाजार संचालित नहीं था, व्यापार नहीं था। आज बाजार पुरुषों के सौंदर्य प्रसाधनों से अटा पड़ा है। जॉन अब्राहम फ़िल्म के अंत में आइटम नम्बर करते नजर आते हैं वैसे फ़िल्म उन्होंने ही निर्मित की है।
जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखित और सुजित सरकार द्वारा निर्देशित फ़िल्म विक्की डोनर में केवल कमियाँ ही नहीं हैं। बहुत सारी बातें अच्छी और मनोरंजक भी हैं। संवादों में फ़ूहड़पन नहीं है वरना इस विषय में फ़ूहड़ और अश्लील हो जाने की पूरी-पूरी गुंजाइश बनती है। डॉक्टर चड्ड़ा के रूप में अन्नु कपूर का उत्कृष्ठ अभिनय किरदार को साकार कर देता है। सुंदर माहौल, सुंदर नायिका, सुंदर अभिनय, सजीव संवाद सब मिलकर फ़िल्म को मनोरंजक बनाते हैं। नायक आयुष्मान खुराना को पहली बार देखा उसका अभिनय अच्छा लगा। फ़िल्म सिर्फ़ एंटरटेंमेंट, एंटरटेंमेंट और एंटरटेंमेंट होती है। गंभीर विषय को हल्का-फ़ुल्का बना कर प्रस्तुत न किया गया तो निर्देशक और निर्माता का भट्ठा बैठ जाएगा। सुना है विक्की डोनर ने अच्छी कमाई की है। मगर हम जैसे दर्शक क्या करें जिन्हें नुक्स निकालने की आदत है।
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*विजय शर्मा, १५१ न्यू बाराद्वारी, जमशेदपुर ८३१ ००१, फ़ोन: ०६५७-२४३६२५१, ०६५७-२९०६१५३,
  मोबाइल : ०९४३०३८१७१८, ०९९५५०५४२७१ ईमेल : vijshain@yahoo.com, vijshain@gmail.com