परिवर्तन की अनुगूँज और कवि का समय
-जितेन्द्र
विसारिया
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लगभग अनामंत्रित (कविता संग्रह)/अशोक कुमार
पाण्डेय/प्रकाशक: शिल्पायन 10295, लेन नं. 1,
वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा,
दिल्ली-110032/प्रथम संस्करण:
2011/पृष्ठ. 135/मूल्य: 175/
परिवर्तन
प्रकृति का सास्वत नियम है। वस्तुएँ सदैव ही अपनी जगह स्थिर नहीं रहतीं, उनके स्थान और क्रम का व्यतिक्रम होता ही रहता है। समाज
की धारा भी हमेशा शांत और निश्चल नहीं रही है। कभी उसकी सतह पर तो कभी उसके तल में
हलचल मची ही रहती है। जो विश्वास और मान्याताएँ सदियों से समाज में अपनी जड़ जमाएँ
रहे और उनके आधार को कभी कोई चुनौती नहीं मिली या नहीं दी जा सकी, पलक झपकते ही उनका साम्राज्य ताश के महल की तरह भरभरा कर
गिरे और उनकी जगह नई मान्यातओं ने कुछ इस प्रकार ली कि आज उन्हें देखकर लगता है कि
इनका अस्तित्व भी उतना ही सनातन है जितना इस पृथ्वी हमारा अस्तित्व...।
उत्तर आधुनिक युग में वैश्विक परिवर्तन की
इस उपभोक्तावादी संस्कृति के अँधड़ ने भी बगैर सत्-असत् के परिज्ञान के केवल बाजार
की लाभ-हानि के शुद्ध गणित के आधार पर बहुत सारे विश्वास और मान्यताएँ, सम्यताएँ और मनुष्य जड़मूल से नष्ट किए हैं या वे अब
नष्ट होने की कगार पर हैं।...इस बाजारवादी व्याध के अग्नि-बाणों का शिकार आज केवल
मिथुनरत क्रौंच ही नहीं, अब तक अपने को
सदियों से संरक्षित और सुरक्षित समझने वाला सारा जल, जंगल और और उसके रहवासी हैं। करुणा से भरा वाल्मीकि स्तब्ध है
कि उसका दिया हुआ श्राप भी कारगर नहीं हो रहा, किसी महाकाव्य की सृजना से पूर्व फूटने वाले अनुष्टप भी कंठ
में ही घुटकर क्यों रह जाते हैं? और व्याध के तीर
निरंतर उसके तूणीर से निकलकर प्रत्यंचा पर चढ़ते चले जा रहे हैं।
अशोक कुमार पाण्डेय |
हिन्दी साहित्य में अपना पहला कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ लेकर कविता समय में प्रविष्ठ हुए युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय
का यह कविता संग्रह वर्तमान नई कविता के थोक बाजार में निश्चय ही अपना एक अलग
स्थान रखता है। अलग इसलिए भी कि यह संग्रह युवाओं की उस पीढ़ी के कवियों का
प्रतिनिधित्व भी करता है, जिन्होंने अपने
इस छोटे से समय में 84 के दंगे, सोवियत संघ का
विघटन, नई उदारवादी नीतियों का आगमन और
भूमण्डलीकरण, अयोध्या-92, मुम्बई-93, करगिल-99, 11 सितम्बर 2001
वल्र्ड ट्रेड सेंटर हमला, 13 दिसंबर संसद
भवन दिल्ली का हमला, गोहदरा-गुजरात-2002, गोहाना कांड-2007,, सिंगूर-नंदीग्राम-2008, मालेगाँव ब्लास्ट-2008, 26/11 ताज होटल मुम्बई-2008, स्पेशल टास्क फोर्स और इरोम शर्मिला, नक्सलवाद, ग्रीनहंट और विनायक सेन जैसी लोमहर्षक और युग परिवर्तनकारी
घटनाओं को अपने आसपास घटते हुए देखा और महसूस किया है। इसीलिए कवि जब जम्मू-कश्मीर
पुलिस हिरासत में हुई छात्रों की मौत और सैना के दमन के विरोध में उठ खड़े कश्मीरी
छात्रों के हाथ में पत्थर देखता है, तो उसके सामने केवल एक तात्कालिक घटना ही नहीं दुर्घटनाओं की
एक लम्बी परंपरा कौंध जाती है-
¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬
‘‘वह पत्थर शायद
शाहबानों की आँख
से टपका आँसू है।
वह पत्थर शायद बाबरी
के मलबे से
उठकर आया है।
वह पत्थर शायद गोधरा
की आग में
सुलगा पत्थर है।
वह पत्थर शायद वली दकनी की ज़मीदोज मज़ार का
पत्थर है।
वह पत्थर शायद गंगा-जमुनी तहजीब
के नींव का पत्थर है।
वह पत्थर शायद फिलस्तीन
के उजड़े घरों
का पत्थर है।
वह पत्थर शायद अबू
गरीब की जेल से
निकली आहे हैं।
वह पत्थर शायद इरोम
शर्मिला के दिल में घुटता गुस्सा हैं।
वह पत्थर
शायद लुटी-पिटी सी
धारा तीन सौ
सत्तर है।’’ (ये किन हाथों मे
पत्थर हैं पृ.52)
इन घटनाओं
के साथ ही साथ इन पन्द्रह-बीस सालों में स्त्री, आदिवासी और दलित जैसे साहित्य जगत में उभरे हाशिए के विमर्शों
ने भी युवा कवियों की संवेदना को झकझोरा है और उसे आधार बनाकर कविता में भी ढाला
है। संग्रह अशोक की ‘माँ की डिग्रियाँ’ और चूल्हा भी दो ऐसी ही कविताएँ है जो उस पुत्र के
दृष्टिकोण से नहीं लिखी गई, जो स्मृतियों और
पुराणों के अनुसार पिता के बाद माँ का संरक्षक और शासनकर्ता बनता है। बल्कि उस
संवेदनशील बेटे के दृष्टिकोण से जो 35 साल से घर के एक कोने में जंग खाये बक्से
में मथढक्की की साड़ी के बीच रखी माँ की डिग्रियों को देखकर महसूस करता है-
‘‘जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह
अहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ-साथ गहराती जा रही पिता की
चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद किताबों के साथ
खुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?
या समचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक
कि आँखों
में बचे ही नहीं किसी अन्य दृश्य के लिए?
(माँ की डिग्रियाँ, पृ.37)
या माँ के
हाथ का खाना खाने की चारणगाथाओं के बीच उसका यह सोचना-
छत तक जीम कालिख
दीवारों की सीलन
पसीने की गुम्साइन गंध
आँखों के माड़े
दादी के ताने
चिढ़-गुस्सा-उकताहट-आँसू
इतना कुछ आता है चूल्हे के साथ
कि उस सोंधे स्वाद से
मितलाने
लगता है जी... (चूल्हा, पृ.37)
व्यक्ति
का जीवन संघर्ष और उसका लेखन जब समरूप हो जाता है तो उसकी छाया एक दूसरे पर पड़े
बगैर नहीं रहती। वे एक दूसरे पर प्रतिबिंबित होती ही हैं। संग्रह की तीन कविताएँ ‘दे जाना चाहता हूँ तुम्हें स्वप्न’, ‘सोती हुई बच्ची को देखकर’ और ‘मैं धरती को एक
नाम देना चाहता हूँ’ कविताएँ उनकी
बेटी के नाम हैं। बेटी जो सदियों से पराया धन मानी जाती रही है। बेटी जो वंश नहीं
चलाती। बेटी जो कभी बेटे के बराबर नहीं रही। अशोक की चिन्ताएँ उसी बेटी को लेकर
हैं, जिसके जन्म को लेकर हर एक परिवार की माँ, दादी, चाची, बुआ और मौसी चिंतित रहती हैं और आश्चर्य कि जिस वंश
परंपरा को लेकर उनकी चिंताएँ रहती है, उस शजरे में कहीं भी उनका नाम नहीं होता है। ‘मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ’ कविता की
यह पंक्तियाँ देखिये जो निराला की ‘जूही की कली’ कविता के पिता की
चिंताओं से कितनी अलग हैं-
‘‘बहुत मुश्किल है उनसे कुछ कह पाना मेरी बेटी
प्यार और श्रद्धा की ऐसी कठिन दीवार
कि उन मानों तक पहुँचते-पहुँचते
शब्द खो देते हैं मायने
ब्स तुमसे कहता हूँ यह बात
कि विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा वह
शजरा
वह तो शुरू होगा मेरे बाद तुमसे! (मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ पृ.48)
स्त्री
अपने प्रत्येक रूप में दलित-शोषित प्राणी है। संग्रह में ‘तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश’, ‘मत करना विश्वास’, ‘तुम्हारी दुनिया में इस तरह’, ‘वे इसे सुख कहते हैं’, ‘काम पर कांता’, ‘पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर’ ‘किस्सा उस कमवख़्त औरत का’ इत्यादि कविताओं को पढ़कर लगता है कि कवि ने स्त्रियों के
तमाम रूपों के बीच उनकी मनःस्थितयाँ पहचानते हुए अपनी (पुरुष) ओर से सचेत होने और
स्वयं सहयोग की अपेक्षा का भाव रखा है, जो निश्चय ही किन्हीं पूर्वाग्रहों से मुक्त एक अपूर्व और
स्वतंत्र और पक्ष है-
सिन्दूर बनकर
तुम्हारे
सिर पर
सवार नहीं
होना चाहता हूँ
न डँस
लेना चाहता हूँ
तुम्हारे
क़दमों की उड़ान
*******
आँखों में
बीजना चाहता हूँ विश्वास
और दाखि़ल
होना चाहता हूँ
ख़ामोशी
से तुम्हारी दुनिया में (तुम्हारी दुनिया
में इस तरह पृ.67)
लेकिन वह
इस विश्वास पर भी शक को तरजीह देता है-
लेकिन फिर
भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
किसका फोन
था कि मुस्करा रहे थे इस कदर?
पलटती
रहना यूँही कभी-कभार मेरी पासबुक
करती रहना
दाल में नमक जितना अविश्वास
हँसो मत
जरूरी है यह
विश्वास
करो तुम्हें
खोना नहीं
चाहता मै (मत करना विश्वास पृ.43)
व्यक्ति
का जब कोई क़दम उसके अपने जन्मजात संस्कार और रूढि़यों से हटकर स्वतंत्र और एक नई
राह की ओर बढ़ता हैं, तब उसके हिस्से
कुछ ऐसे आत्मीय सूत्र चटकाने का पाप भी आता है जिन्हें वह तोड़े तो पछताये और न
तोड़े तो पछताये...। संग्रह में एक कविता है ‘हम नालायक बेटे’ जो अपनी राह खुद चुनने वाले दुनिया के किसी भी बेटे की आपबीती
हो सकती है। कविता में कवि की मनःस्थिति देखिये-
कितनी
वैतरणियाँ थीं हमारे गर्वीले काँधों के इंतजार में
कितनी परंपराएँ पूर्वजों के किस्से
कितने ही धनुष थे हमारे इंतजार में और कितनी
ही चिडि़याँ
हमारी उम्र से भारी कितनी ही उम्मीदों का
तूणीर
********
सब के सब
निराश
सब के सब
नाराज
सब के सब
निरुपाय
हम तोड़
आये सारे चक्रव्यूह
और ठुकरा
दिया गर्भ में मिला ज्ञान
********
कर्तव्यों
के मारे हम
हमने
छोड़ी अधिकारों की चाह
और चुनी
खुद अपनी राह (हम नालायक बेटे पृ. 66)
स्त्रियों
की तरह दलितों ने भी भारत में सदियों से अपमान और शोषण का जीवन जिया है। सŸाा और संपŸिा से वंचित इस वर्ग की दशा पर इस संग्रह में पारंपरिक शैली
में तो कोई कविता नहीं है और चूँकि अशोक रेडिकल वाम विचारधारा से जुड़े हुए हैं, इसलिए उन्होंने इस समस्या को उसके एकांगी नहीं समग्र रूप
में देखा हैं। ‘बुधिया’ कविता में वे बाल मैराथन धावक बुधिया की दौड़ को वह दलित
और सर्वहारा की प्रगति की दौड़ से जोड़कर देखते हैं-
गौर से देखो
नर्म
जूतों में छिपी
काठ-सी
गठाने आज की नहीं
सदियों से
भूल गई नरमी
इन घरों
का रास्ता।
सदियों से
नहीं रची विधाता ने
इन
हथेलियों में भाग्य की रेखा।
सदियों से
रूठ गए सपने
इन पनियाई
आँखों से।
बहुत कम
समय
और पार
करने हैं सदियों के फासले... (बुधिया
पृ. 58)
यूँ तो
आदिवासियों को दलितों के साथ ही जोड़कर उनकी समस्याओं का सामन्यीकरण किया जाता रहा
है, किन्तु उनकी समस्याएँ और संकट आज की
परिस्थितियों में दलितों से भी ज्यादा भयावह हैं। संग्रह की सर्वश्रैष्ठ और लम्बी
कविताओं में शुमार होने वाली कविता ‘अरण्यरोदन नहीं है यह चीख’ आदिवासियों का एक तरह से काव्यात्मक इतिहास है-
‘‘इस जंगल में एक मोर था
आसमान से
बादलों का संदेशा भी आ जाता
ते ऐसे
झूम के नाचता
कि धरती
के पेट में बल पड़ जाते
अँखुआने
लगते खेत
पेड़ों की
कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों
के सीन में ऐसी उठती हिलोर
कि दूसरे
घाट पर जानवरों को देख
मुस्कराकर
लौट जाता शेर (पृ.127)
‘अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार एक ऐसी कविता है जिसमें
आदिवासियों के प्रति देशी-विदेशी, उपनिवेशवादी और
पूँजीवादी सभी ताकतों द्वारा किए गए या किए जा रहे दुराग्रहों और दुव्र्यवहार और
उन्हें उनके जल, जंगल और ज़मीन से
खेदड़े जाने और उन्हें नष्ट किए जाने की मार्मिक अभिव्यक्ति तो है ही साथ-ही-साथ
एलीट वर्गीय इतिहासकारों और उनके लेखन पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है, जिसमें उन्हें कोई स्थान प्राप्त नहीं है-
हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नाम
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार गाथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी कहीं नहीं कोई बिरसा
मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में जिक्र नहीं टंट्या
भील का
जन्मशताब्दियों की सूची में नहीं शामिल
कोई सिधु-कान्हू... (पृ.134)
इस कविता
फलक इतना विस्तृत है कि उसकी सीमाएँ एक ओर आदिवासियों के सुदूर अतीत और उसके
प्रकृतिजीवी होने, भूत की अलिखित
परंपरा में अपने अमिट चिन्ह छोड़ने और वर्तमान में उनके दमन-शोषण और फिर-फिर
हथियार उठाये जाने एवं अपनी आत्मरक्षा और अस्तित्व रक्षा के लिए लड़ी जाने वाली
लड़ाई में आतंकवादी घोषित होने और मारे जाते रहने की दास्तान है। कविता में कहीं
जेम्स केमरून निर्देशित ‘अवतार’ फिल्म जैसे आभासीय किन्तु यथार्थ की ज़मीन पर ठोस
शब्दचित्र, मोर, मणि और वनदेवी के रूप में आदिवासी प्रतीक, तो कहीं ग्रीनहंट और विनायक सेन दिखयी देते हैं-
हर तरफ एक अपरिचित सा शोर
अपराधी वे जिनके हाथों में हथियार
अप्रासंगिक वे अब तक जिनकी क़लमों में धार
वे देशद्रोही इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी
आवाज़
कुचल दिए
जाएँगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ़... (पृ.135)
इन
सामूहिक स्वप्नों की चिंता को लेकर संग्रह में एक और अन्य महत्वपूर्ण कविता है ‘तुम्हें कैसे याद करूँ भगत सिंह’ जिसमें कवि भगत सिंह का स्मरण करते हुए कवि कहता है-
कौन सा ख़्वाब दू
मैं अपनी बच्ची की आँखों में
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने
जलियाँवाला बाग फैलते-फैलते
...हिन्दुस्तान बन गया है। (पृ.105)
राजनैतिक
हिंसा और सामाजिक शोषण के साथ-साथ विगत सदी में समाज में ज़हर बनकर पनपे
साम्प्रदायिक उन्माद और दमन पर भी संग्रह में कई महत्वपूर्ण कविताएँ हैं, जिनमें ‘चाय, अब्दुल और मोबाइल’, ‘अकीका’, गुजरात-200’, ‘काले कपोत’, ‘तौलिया, अर्शिया, कानपुर’, ‘वे चुप
हैं’ इत्यादि प्रमुख हैं। इन कविताओं में
भी कवि की प्रखर दृष्टि का परिचय मिलता है-
‘‘अब वे नहीं बोलते ऊँची आवाज़ में
सिर झुकाए निकलते हैं अपनी बस्तियों से
ईद पर मिलते हैं गले जैसे दे रहे हों दिलासे
शोकगीतों की तरह बुदबुदाते हैं प्रार्थनाएँ
इतनी कच्ची नींद में सोते हैं
कि जगा देती है अक्सर घड़ी की टिकटिक
भी (गुजरात-2007 पृ.85)
इन
कविताओं के अलावा संग्रह में ‘सबसे बुरे दिन’, ‘लगभग अनामंत्रित’, ‘कहाँ होगी जगन की अम्मा’, ‘एक सैनिक की मौत’, ‘अंतिम इच्छा’, ‘वैश्विक
गाँव के पंच सरपंच’, ‘मौन’, ‘आजकल’, ‘वे चुप
हैं’, ‘मैं चाहता हूँ’, ‘आँखें’, ‘अच्छे
आदमी’, ‘एक पुरस्कार समारोह से लौटकर’, ‘उधार माँगने वाले लोग’, ‘विष नहीं मार सकता था हमें’, ‘आग’, ‘अर्जुन
नहीं हूँ में’ ‘गाँव में अफसर’, ‘यह आप पर है’, ‘बाजार में जुलूस’ ‘यह हमारा ही खून है’, ‘इन दिनों बेहद मुश्किल में है हमारा देश’, ‘परिचय’, ‘विरुद्ध’, ‘जो नहीं किया आपने’, ‘दुख के बारे में एक कविता’ संग्रह की अन्य महत्वपूर्ण कविताएँ हैं, जो कवि की जीवन दृष्टि और सोच के विस्तृत फलक का परिचय
देती हैं। संग्रह की कुछ कविताओं पर अन्य कवियों की रचनाओं का सीधा असर परिलक्षित
होता है। जैसे ‘यह किन हाथों में
पत्थर है’ कविता पर फिल्म ‘उमराव जान’ रेखा द्वारा गायी शहरयार की गज़ल ‘यह क्या जगह है दोस्तों ए कौन सा दयार है’ का और ‘सबसे बुरे दिन’ कविता पर अवतार सिंह पाश की प्रसिद्ध कविता ‘सबसे खतरनाक’ की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। जहाँ कहीं कवि का झुकाव क्लिष्ट
कलावाद की ओर हुआ, वहाँ उसकी
सामाजिकता की धार भी कुन्द पड़ी है। कई जहग बहुत कुछ समेटने के चक्कर में कविता की
गंभीरता विवरणों में बदल गई है। ...इतनी सारी खूबियों और खामियों के बाबजूद ‘लगभग अनामंत्रित’ कविता संग्रह हिन्दी युवा कविता में अपनी अनूठी कहन और
वैचारिक प्रखरता के लिए बहुत दिनों तक याद किया जाता रहेगा।
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जितेन्द्र विसारिया |
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