Monday, July 8, 2013

तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है

तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है
        कालूलाल कुल्मी
          
समकालीन कविता को अभी तक कोर्इ नाम नहीं दिया गया है। उसे समकालीन कविता ही कहा जाता है। नब्बे के दशक से आज तक जो कविता लिखी जा रही है वह समकालीन कविता है। चाहे युवा कवि लिखे या वरिष्ठ कवि। यह समकाल का प्रभाव है या दबाव, इसकी पड़ताल की जानी है। यह सुखद है कि एक साथ तीन-तीन नस्ले लिख रही हैं। सोच रही है, संवाद कर रही हैं। उसमें कर्इं अंतरविरोध उभरकर आ रहे हैं। समकाल की पड़ताल करती विमलेश त्रिपाठी की कविताएं मनुष्य के बचे रहने की संभावना के साथ अपनी उपसिथति दर्ज करती है। केदारनाथ सिंह विमलेश त्रिपाठी की कविताओं के बारे में कहते हैं कि 'अपने आस-पास की छोटी-छोटी छूटी हुर्इ चीजों को अपने साथ लिये-दिये चलने वाली और उनके भीतर के मर्म को निहायत अनाटकीय ढंग से पकड़ने वाली ये कविताएं हमें रोकती-टोकती हैं और एक जानती-पहचानती भाषा में हमसे बोलती-बतियाती हैं। यही इस युवा कवि वह विशेषता है जो उसके भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है।'(फ्लैप से) आज की फास्टफुड लाइफ में छोटी चीजे विस्मृत होती जा रही हैं। उनके बार में सोचने का समय कम हो रहा है। जैसे पैसेंजर हर स्टेशन पर रुक-रुक कर भागे जा रहे लोगों को ठहरने की हिदायत देती हैं वैसे ही विमलेश की कविताएं रोकती है और फिर टोकती हैं। बहुत धीमी गति से जीवनराग को बजाती हैं। लौटने में कितनी उम्मीद और लय है
'मंदिर की घंटियों की आवाज के साथरात के चौथे पहर
जैसे पंछियों की नींद को चेतना आती है।हर रात सपने में
मृत्यु का एक मिथक जब टूटता हैऔर पत्नी के झुराए होठों से छनकर
हर सुबहजीवन में जीवन आता है पुन: जैसे
कर्इ उदास दिनों केफांके क्षणों के बाद
बासन की खड़खड़ाहट के साथ जैसे अतड़ी की घाटियों में
अन्न की सोंधी भाप आती हैवैसे ही आऊगा मैं।
जीवन की अपनी लय होती है। जहां से मनुष्य आगे बढ़ता है। मनुष्य प्रकृति के राग के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए श्रम करता है और उससे सौंदर्य की सृषिट। यह लौटना बचे रहना है। जीवन सौंदर्य की लय के साथ बचे रहना है। अपने आसपास के साथ बने रहना है, उसे बचाये रखना है। अन्न की सोंधी भाप को बचाना है। जहां जीवन की लय नहीं होगी वहां जीवन पर जड़ता हावी होती जाती है। जहां गति होती है वहां जीवन बचता है। विमलेश के यहां जीवन और जीवन की लय दोनों साथ है। कविता विचारों का ब्यौरा नहीं होती। कविता भावों का भाषा में कायांतरण होती है। जहां कविता में किसी एक का पलड़ा भारी हुआ कविता कमजोर होती है। दोनों में संतुलन कविता को कविता में रुपांतरित करता है। अपने कायांतरण में कविता बहुत कुछ को समेटती है। अपने आसपास के जीवन की विदू्रपताओं की और संकेत करती है। जहां एक सामान्य आदमी की निगाह नहीं जाती वहां कवि की निगाह जाती है। वह उसको कविता के माध्यम से पाठको के सामने रखता है। कविता का जादू कम हो रहा है, जीवन भरसक कठिन होता जा रहा है। मनुष्य की चमड़ी मोटी हो रही है तब कवि कहता है
'मैं समय का सबसे कम जादुर्इ कवि हूमेरे  पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आत है बहन की सूनी मांग है
छोटे भार्इ की कम्पनी से छूट गर्इ नौकरी हैराख की ढेर से कुछ गरमी उधेड़ती
मां की सूजी हुर्इ आखें हैंमैं जहां बैठकर लिखता हू कविताए
वहां तक अन्न की सुरीली गंध नहीं पहुचती'
अन्न से गंध विस्थापित होती जा रही है। एक तरफ झूठन का अंबार लगा हो और दूसरी तरफ भूखों का। जहां भूख है वहां अन्न और गंध दोनों नहीं है, जहां भूख नहीं है वहां अन्न ही अन्न है कि उससे झूठन बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में कवि की कविता का जादू क्षीण हो रहा है। वह जितने समय में एक कविता लिखता है उतने समय में 'बहन 'औरत से धर्मशाला' में तब्दील हो जाती है'। औरत का धर्मशाला में बदलना! उसके सपनों का अंत है। विमर्श के दौर में स्त्री अपने लिए समाज में समकक्ष जगह बना रही है। जिसकी वह हकदार है। वह सिर्फ देह नहीं है। न ही वह वर्जनाओं का पुतला। ऐसे में वह समाज के निर्माण में समानांतर निर्णायक और नियमक होने की निर्णायक स्वयं है। वहां वह किसी भी रुप में समाज के लिए धर्मशाला नहीं है। न औरत के रुप में न श्रम करनेवाली कोर्इ मशीन। उसका अपना स्वतंत्र वजूद है। उसकी अपनी सोच है।
'उदास मत हो मेरे भार्इतुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है
नहीं मेरे पास तुम्हारे लिए जमीन का कोर्इ टुकड़ाजहा ऊग सकें तुम्हारे मासूम सपने
न कोर्इ आकाशजहा रोटी की नयी और निजी परिभाषा तुम लिख सको
वह समय भी नहींकि दुनियादारी से दूर हम निकल जाए
खरगोशों का पीछा करते गंगा की कछार तक
लौटें तो मां के आंचल में ढेर हो जाए'
मनुष्य की उदासी कविता की पराजय है। कविता मनुष्य की जय यात्रा की सबसे सघन साथी है। उसने मनुष्य की उदासी के बीच से संभावना की लौ जलायी है। मनुष्य के श्रम से रोटी की परिभाषा को रचा है। अपने भार्इ की उदासी को कवि इसी वजह से कविता में समेट लेना चाहता है। समय के साथ जहां सबकुछ बदल रहा है वहां अपने भार्इ की बचपन की स्मृति को बचाये रखते हुए प्रगाढ़ता का अनुभव भी कराना चाहता है। इसी में वह सब के बचने की उम्मीद लगाये हुए हैं।
'सब कुछ के रीत जाने के बाद भी
मा की आखों में इन्तजार का दर्शन बचा रहेगा
अटका रहेगा पिता के मन में
अपना एक घर बना लेने का विश्वास
ढह रही पुरखों की हवेली के धरन की तरह'
सब कुछ के रीत जाने के बाद भी उम्मीद का बचा रहना, अनन्त संभावनाओं का बचा रहना है। एक पिता का अपना घर बना लेने का विश्वास अपने और अपनी आनेवाली नस्लों के सपनों की बुनियाद रखना है। उनके लिए जमीन तैयार करना है। सभ्यता का विकास संबद्धता में ही संभव है। जहां किसी तरह का कोर्इ अंतरविरोध ही नहीं है वहां परिवर्तन कैसे संभव होगा। परिवर्तन विध्वंस करता है। चली आ रही लीक को तोड़ता-मरोड़ता है। उसको लांघता है। नये रास्ते खोजता भी है और निर्मित भी करता है। वहां किसी भी तरह का पूर्वाग्रह दुराग्रह नहीं होता। वहां सीमाओं के पार जाने का दुस्साहस होता है। झंझावातों को पार करने का पागलपन होता है। जहां सपने होते हैं वहां संघर्ष होता है। वहां भविष्य होता है।
'एक उठे हुए हाथ का सपनामरा नहीं है
जिंदा है आदमीअब भी थोड़ा सा चिडि़यों के मन में
बस ये दो कारणकाफी हैं
परिवर्तन की कविता के लिए।'
कविता, भाषा,मूल्य,मनुष्य मनुष्य के भीतर के ताप को बचाने के लिए कवि शब्दों के स्थापत्य को तराशता है। भाषा मनुष्य की सबसे श्रेष्ठ खोज है। उसमें ताप रहेगा तो मनुष्य के अंदर भी ताप रहेगा। जहां भाषा गंदलाएगी वहां मनुष्य की संवेदना भी गंदलाएगी। उसके भीतर का ताप बर्फ बनता जाएगा। इसी कारण अवधूत की तरह कवि भाषा को तराश रहा है
'शब्दों के स्थापत्य के पारकहीं एक अवधूत कोशिश है
आदमी के भीतर डूबते ताप को बचाने कीऔर एक लम्बी कविता है
युद्ध के शपथ और हथियार से लैसमेरे जन्म के साथ चलती हुर्इ
निरंतर और अथक।'

'यह दुख ही ले जाएगा
खुशियों के मुहाने तक
यही बचाएगा हर फरेब से
होठों पे हसी आने तक'
आदमी के ताप को खत्म करने के लिए व्यवस्था ने हर युग में नये-नये तरीके र्इजाद किये। मनुष्य जहां अन्याय और शोषण के लिखाफ खड़ा होता है, उसके मनोबल को तोड़ने के लिए तमाम तरह के दुष्प्रचार और शकित प्रदर्शन किये जाते हैं। उसको बहुत तरह से सताया जाता है। इस सब के बावजूद मनुष्य का मनोबल अपने ताप को बचाये रखता है और लड़ता रहता है। उसका यह संघर्ष मनुष्य और मनुष्य की रची हुर्इ धरती की सुंदरता को बचाये रखने के लिए हैं। जहां सब और लूट ही लूट मची हुर्इ हैं। वहां उसका संघर्ष मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को समानांतर चलाये रखना है। न कि प्रकृति को मनुष्य के अधीन कर उसको नष्ट करना है। यह चलता रहा तो सब बचे रहेंगे, और आगे के लिए भी कुछ करते रहेंगे। लाल रंग के साथ हरा और सफेद दोनों ही बचे रहेंगे। सिर्फ लाल रंग के रहने से काम नहीं चलेगा। प्रकृति और मनुष्य का भविष्य एक साथ है। प्रकृति मनुष्य की अग्रज ह,ै तो सहचर भी है। सहधर्मिणी भी है, सहकर्मी भी है। ऐसे में एक के बगैर दूसरे की कल्पना कैसे संभव होगी?
मनुष्य बनने की प्रकि्रया मनुष्य के श्रम से ही संभव हुर्इ। चंद्रकांत देवताले अपनी एक कविता में कहते हैं कि 'जो नहीं होते धरती परअन्न उगाने-पत्थर तोड़ने वाले अपनेतो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमीआखेट और खेती-बाड़ी करते पुरखों नेजो आग के भीतर नहीं पकार्इ होती अपनी जबानतो वे नहीं दे पाते चीजों को एक के बाद एकउनकी पहचान।'
विमलेश की कविता श्रमधर्मी परम्परा का ही उतरोत्तर विकास हैं। बाबा नागाजर्ुन के यहां दुधिया वात्सल्य है तो विमलेश के यहां दुधिया हसी है। जो धरती के इस छोर से उस छोर तक है। विमलेेश की कविता को पढ़ते हुए कभी निराला याद आते हैं तो कभी मुकितबोध। निराला के यहां वह पत्थर तोड़ती है यहां वह घर का काम करती है। वहां वह मार खा रोर्इ नहीं है। यहां वह 'हसती कभी कि कोर्इ मार खार्इ हसती हो।'
मैंने लिखा-खेतऔर मैंने पाया
कि मेरी कलम से शब्दों की जगह
गोल-गोल दाने झर रहे हैं
मैंने लिखा-अन्नऔर मैंने महसूस किया
कि मेरी धमनियों में लहू की जगह रोटियों की गंध रेंग रही है
मैंने लिखा-आदमीऔर मैंने सुना
कि चीख-चीख कर कर्इ आवाजें
सहायता के लिए मुझे पुकार रही हैं
मैंने लिखा-र्इश्वर और मैं डर गया
कि कमरे के साथ मेज और कलम
सभी किसी अज्ञात भय से थरथरा रहे हैं।

कवि शब्दों के पीछे की दुनिया को शिद्धत से महसूस करता है। उसके लिए शब्द गंध की तरह होते हैं। जिनसे वह धरती की गंध को महसूस करता है। मनुष्य के भीतर के मनुष्य को महसूस करता है। बसंत प्रकृति का यौवन है। बसंत के आने पर प्रकृति खिल उठती है। जीवन को नया राग प्रदान करती है। एक लड़की के जीवन में बसंत के बहुत मायने होते हैं। हर लड़की अपने बसंत को जमाने से चुराना चाहती है। अपने लिए।
एक लड़कीअपनी मां की नजरों से छुपाकर
मुठठी में करीने से रखा हुआ बसंतसौंपती है
कक्षा के सबसे पिछले बेंच पर बैठने वाले
एक गुमसुम
और उदास लड़के को।
लोहा और आदमी दोनों में क्या फर्क है? दोनों एक ही है। आदमी ने लोहा खोदा और सृजन किया। उसी से आदमी ने युद्ध लड़े।
वह पिघलता हैऔर ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुर्इ में और छेनी-हथौड़े में भी
उसी से कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ार्इया भी उसी से लड़ी जाती हैं
कर्इ बार फर्क करना मुशिकल होता है
लोहे और आदमी में!
यह विमलेश का पहला कविता संग्रह है। इस संग्रह की एक भी कविता को नजरअंदाज करना बेमानी है। प्रत्येक कविता इस संग्रह को पूर्ण करने में अपना योग देती है। कविताएं अनोखी हैं। भाषा को लेकर सहजता है। कहीं भी वैचारिक दबाव या आरोपण नहीं है। कविताएं सहजता के साथ सम्पे्रषित होती हैं। परत दर परत खुलती जाती है। यह कविता संग्रह भाषा और भाव दोनों ही तरह से अपनी पहचान कराता है। कविता के लिए किसी तरह की बनावटी भाषा से काम नहीं चलता, कविता की अपनी भाषा होती है। खरगोश के रोंओ की तरह। भावों में खदबदाती भाषा। जैसे लोहा गर्म होने के बाद आकार लेता है वैसे ही कविता की रचना प्रकि्रया है। अन्न की गंध को कविता में रुपांतरित करता कवि अन्न के माध्यम से अपने समय के यथार्थ को व्यक्त करने में किसी तरह की कोर्इ लापरवाही नहीं करता। आज की जिंदगी में कहीं न कही गंध मनुष्य के जीवन से विस्थापित हो रही है। ऐसे में इसका यह सघन अहसास हमें ठहर कर विचार करने को मजबूर करता है। कुछ लोग और सब लोग के बीच में सब लोग अन्न और अन्न की गंध दोनों से महरुम है। ऐसे में सब के बचे रहने पर ही कुछ लोग अपने बचे रहने की कल्पना कर सकते हैं। अन्न की गंध उन लोगों के लिए है जो श्रम तो करते हैं पर फिर भी खाली पेट रहते हैं। उनके लिए सबसे बड़ी चिंता अन्न की है। उसके बाद है बचा रहना, सपने देखना, आगे बढ़ना। वे जिस समाज में रहते हैं वहां ऐसी मनुष्य बाहर से भर रहा है और भीतर से रीत रहा है, सभ्यता विशालकाय डायनासोर की तरह होती जा रही है। ऐसे में कवि की उम्मीद करता है
'जमीन सोनल धूप में उबल रही है
आहिस्ता-आहिस्ता पृथ्वी के बचे रहने की गंध में
पूरा इलाका मदहोश है'


हम बचे रहेंगे  : विमलेश त्रिपाठी (कविता संग्रह)
नयी किताब प्रकाशन,दिल्ली
प्रथम संस्करण : 2011
मूल्य : 200 रुपये

पता- कालूलाल कुलमी,राजमल कुलमी 08947858202
गांव-राजपुरा, पोस्ट-कानोड़

जिला-उदयपुर.. राजस्थान 313604

Tuesday, September 4, 2012

भरत प्रसाद पर महेश पुनेठा



उपेक्षित -अवहेलित चेहरों की दास्तान
                                                                महेश चन्द्र पुनेठा

एक पेड़ की आत्मकथा  भरत प्रसाद का पहला कविता संग्रह है। संग्रह में उनपचास कविताएं हैं।ये कविताएं हमारे समय और समाज के अलग-अलग तरह के चेहरों का एक कोलाज  पाठकों के सामने प्रस्तुत करती हैं। यहां एक ओर उस संवेदनहीन बुद्धिजीवी का चेहरा है जो बंजर जमीन ,गंदे नाले , घास चरने के दौरान मुह में चुभते हुए काटे और गर्दन में धसे हुए हथियार  की तरह है तो दूसरी ओर उस आदमी का चेहरा है जो जमाने की कठिन मार से झुलस गया है  जिसकी खुशियां उजड़ गई हैं, इच्छाओं की अकाल मृत्यु हो चुकी है और जिसके आजाद सपनों को कुचला जा रहा है। जो मजबूरियों में सुलग रहा है।जिसकी   पेट पालने की भयानक चिंता में गायब होती जा रही है जीवन की लय ।  सुख मरीचिका के लिए दौड़ते मन ने जिसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है।

इन कविताओं के बीच से एक चेहरा उस आठ वर्षीय बालक का भी झाकता है जो -देखता है ऐसे कि आप देख नहीं पाएंगे हसता है ऐसे कि आप उपेक्षा से तिलमिला जाएंगे रोता है ऐसे कि आप सन्न रह जाएंगे।.......जो जिंदा दुर्भाग्य की तरहबहते नालों के किनारे या ढाबों के पिछवाड़े सड़ते हुए जूठन की महक मिलते ही मारे खुषी के लपक पड़ता है-मरियल शरीर में ,बिजली दौड़ जाती है! सचमुच कितना  डरावना है यह चेहरा । कवि इस चेहरे को सभ्य समाज के मुह पर तमाचा मानता है। वह बच्चे की इस सिथति के लिए समाज को जिम्मेदार मानता है जो शत-प्रतिशत सही है । कवि कहता है कि हमें कुछ सीखना चाहिए - उसकी उन चाहत भरी आखों से जो इतना होते हुए भी इंसानियत से भरी हैं। वह खाए-पीए अघाए लोगों की तरह अमानवीय-क्रूर -असंवेदनशील नहीं है।

भरत प्रसाद
एक और चेहरा उस मध्यवर्ग का भी है यहा जो संवेदनाओं के लुप्त होने के चलते किसान-मजदूर को नहीं पहचानता है । इसलिए कवि पूछता है - सुक्खू आज भी मिटटी की दीवाल खड़ी कर रहा हैरामदीन आज भी  रात भर कापते हुए पेट भरने का सपना देख रहा है इन्हें कौन पहचानेगा ?.....कौन कहेगा इन्हें कि तुम दबी हुइ्र्र सबसे कीमती आवाज हो पहली-पहल इंट जिसके अदृष्य धैर्य की ताकत आज भी मनुष्य की ऊंचाई को थामे हुए है।.....सचमुच आपके पहचानने का मूल्य इन्हीं को पहचानने पर निर्भर है।

इन कविताओं में आया एक स्त्री का चेहरा तो दिल दहला देने वाला है जिसकी चमड़ी तो उधड़ी है फिर भी चिपकी हुर्इ है । ढाल की तरह अनेक चोटों के निषान से भरी हुर्इ है जो। जिसका षरीर काप रहा है और सुर्ख-नीले निषानों से भरा है तथा चेहरा सूजा हुआ है । मार खाई हुई यह हमारे जमाने की ही स्त्री है जिसके पास जुबान है पर वह अपनी पीड़ा को व्यक्त नहीं कर पाती है क्योंकि पीड़ा इतनी अधिक है कि उसको व्यक्त कर पाना भी संभव नहीं है । ये सब भी कब हो रहा है उसके साथ जबकि सब कुछ सर्वस्व न्यौछावर कर रही है दूसरो के लिए - तुम्हारे लिए तो कोर्इ पराया था ही नहींं कैसे भी काम के लिए कभी तुमने ना नहीं कियाचाहे वह तुम्हारे सामथ्र्य से बाहर ही क्यों न होक्या छोटे, क्या बड़े हर किसी के उपेक्षा और अपमान भरे आदेष का पूरी र्इमानदारी से पालन करती रही । यह बात अच्छी है कि  कवि स्त्री की इस शक्ति से बहुत प्रभावित है - आओं बहन! आज मैं तुम्हारा हृदय चूमूंगा इसमें इतनी ष्षकित कहा से आ गई। पर क्या उसके हृदय को चूमने या उसकी प्रषंसा करने की आवष्यकता है या फिर उसके साथ खड़े होकर अन्याय के खिलाफ लड़ने की जरूरत? यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि  सदियों से इस सहनषकित की प्रषंसा करते हुए औरत का बहुत अधिक षोषण-उत्पीड़न  हुआ है। असीम पीड़ा बर्दाष्त करने के बावजूद भी उसका चौंका देने की हद तक अबोध बना रहना ही दूसरों को उसके षोषण-उत्पीड़न  की छूट या अवसर देता रहा। इसको महिमामंडित करने की नहीं बलिक इस षोषण-उत्पीड़न के विरूद्ध उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की आवष्यकता है। कवि अपील करता है- यदि आपके भी सीने मेंहै कहीं दिल तो पैर की अगलियों से लेकर पिचके चेहरे तक उभरी हुई हडडियों को जरा ध्यान से देखिए  सोचिए उसे उसमें आपके लिएरोज-रोज के कठिन परिश्रम का ताप हैडटकर खड़े रहने  और हर मुषिकल से जूझने का जज्बा हैहारकर भी कभी हार न मानने औरमैदान न छोड़ने की जिद है। एक अन्य कविता में वे कहते हैं- औरत वह गुजर गयी,,दुनिया को छोड़कर अब जाकर मुकित मिली मौत भरे जीवन से । औरत के जीवन की विडंबना को व्यक्त करती हैं ये पंक्तियां। कैसी विद्रूपता है हमारे समाज की जहा मरना औरत के लिए मुक्ति है ? उसका जीवन मौत से बदतर है।

औरतों की इस सिथति को देखते हुए ही भरत प्रसाद भारत की आजादी को अधूरी मानते हैं। आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि आजादी के आधी शताब्दी बीत जाने के बाद पहली बार 2001में महिला सषक्तीकरण वर्ष घोषित किया गया । और यह भी कैसा सशक्तीकरण औरत की गुलामी के खिलाफ जलती मशाल की प्रतीक फूलन देवी की हत्या हो गर्इ। उसने पुरुष सत्ता वह भी उच्चवर्र्गीय के विरुद्ध मुह खोलने की अक्ष्यम्य गलती की थी -गलती की थी उसने पुरूषों की हवस रूपीषाष्वत पशुता के खिलाफ और उच्चवर्ग की सदाबहारघटिया मनमानी के खिलाफ  औरत होकर बगावत की थी । ......फूलन, विद्रोह के इतिहास मेंऔरत के ज्वलंत पाठ की तरह हैजिसने नारी की स्वतंत्रता पर कुंडली मारकर बैठे हाथ और पैर वाले सापों को ललकारा।  फूलन देवी :एक सवाल  कविता के माध्यम से कवि उस सवाल का उत्तर हमारे सामने प्रस्तुत करता है कि आखिर कोर्इ औरत फूलन देवी क्यों बनती है ? इस तरह कवि स्त्री स्वतंत्रता व जीवन में प्रतिरोध के मूल्य का समर्थन करता है। उनकी कविताओं में आर्इ भंवरी और फूलन मात्र दो औरतें नहीं हैं बलिक प्रतिरोध की प्रतीक हैं और एक विचार हैं। ये ऐसी स्त्री पात्र हैं जो पुरूष प्रधान समाज की अमानवीयता ,बर्बरता और संकीर्णता की षिकार हुर्इ लेकिन दोनों हारी नहीं । दोनों दलित वर्ग की हैं। हमारे समाज में औरत की हैसियत क्या है ?उसे इन दोनों पात्रों के माध्यम से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है । कैसी विडंम्बना है कि यदि औरत के साथ कोर्इ दुव्र्यवहार होता है तो वह सहानुभूति की पात्र होने के बजाय एक अपराधिनी की तरह देखी जाती है । अपने ही लोगों के लिए परायी और अस्वीकार्य हो जाती है।  जमाने के नंगे मुहावरों से इज्जत बचाने के लिए अपने ही रिष्तों की परिभाषा बदल देते हैं। कैसी झूठी शान है यह, जो दुर्घटना का षिकार है उसी को सजा मिलती है । यह बात सोचने को मजबूर करती है कि कालजयी दंष क्यों बना बलात्कार ? क्योें उसे एक हथियार बनने दिया गया । यह कहीं न कहीं हमारे समाज के संस्कृति के सरगनाओं तथा नैतिकता के ठेकेदारों का कारनामा है जिन्होंने इसे स्त्री को अपने अधीन बनाए रखने के लिए गढ़ा । अन्यथा बलात्कार औरत के खिलाफ एक बर्बर हिंसा है और हिंसा का षिकार कोर्इ भी प्राणिमात्र दया का पात्र होता है न कि बेइज्जती का। यह कैसा सामाजिक कानून है जो पीडि़त को ही सजा देता है । उसे हेय दृषिट से देखता है ।कवि का यह प्रष्न जायज है -  यह पुराना खेलकब से चलरहा है?कितना बेवषों को लूटेगा ?इस उत्तर सदियों से प्रष्नवाचक बना हुआ है! भरत के मन में स्त्री जाति के प्रति कितना सम्मान है इन पंकितयों में देखा जा सकता है- निर्मल विरोध की ष्षकित और सच्चे इंसाफ की आगउसी के भीतर धधकती हैजिसका निष्चल हृदय अमूल्य होने के बावजूद जीवन भर अपनी सुंदर मानवीयता का निर्मम दंड पाता आ रहा है!......औरत को उसके अनुसार देखने वाली वर्तमान और भविष्य की हर दुर्लभ आख को पूरी चालाकी के साथ बंद कर दिया जाता है। कितना दुर्भाग्य है कि औरत के संदर्भ में न्याय व्यवस्था भी निर्दोष और निष्पक्ष नहीं है- न्याय भी अन्याय करता हैफैसले भी विषाक्त होते हैंसत्ता के जादुर्इ पेट में  दूध भी जहर बन जाता हैसारे कायदे और कानून उसकी सेहत के लिए सीधे हजम कर लिए जाते हैं। यहा उसकी ष्षब्द अपराध के मसीहाओं और षांति के षिकारियों  के लिए आया है। यह केवल स्त्री की विडंबना और उसके साथ होने वाले अत्याचार को ही नहीं व्यक्त करता है बलिक सत्ता के चरित्र को भी उघाड़ के रख देता है । यहा साफ-साफ दिखार्इ देता है कि न्याय व्यवस्था भी कहीं न कहीं सत्ता के संरक्षण के लिए ही बनी है।

कविताओं में आए इन्हीं अलग-अलग चेहरों को कवि सृजन की अनिवार्य शर्त मानता है।इस बात पर बल देता है कि  साहित्य के केंद्र में यही चेहरा होना चाहिए । उसकी पीड़ा को समझना उनके कारणों को जानना तथा दूर करने के लिए वातावरण सृजन करना एक कवि का काम है। कवि को इस बात की शर्मिंदगी है कि वह इन चेहरों की गैर कानूनी नियति के खिलाफ अपनी जुबान नहीं खोल पाया । इन कविताओं में हमें केवल अपने आसपास के लोगों के चेहरे ही नहीं दिखाई देते बल्कि अपने समय का चेहरा भी दिखाई देता है। एक बानगी देखिए- यह समय मेरा -हार खाकर लड़खड़ाकर  वृद्ध जैसा जी रहा  बीमार सा, बेहाल सा निश्चिंत लोगों से करते नहीं परवाह जो  अपने सिवा किसी और की ।........ क्योंकि आजकल व्यवस्था के कूड़े पर चारों ओर फल-फूल रहीअन्याय की संस्कृति का षकितषाली मुखिया घोषित होता हैइमानदार और बुरे-जमाने से खुलेआम लड़ने वाला सच्चा पर गरीब आदमीपूरी साजिष के साथ गलत करार दिया जाता है।

समीक्ष्य संग्रह की कविताओं में जनपदीयता भले कम दिखार्इ देती हो पर प्रकृति से रागात्मकता खूब है। इन कविताओं का कवि असीम नवीनता से भरी अपनी पृथ्वी को अपलक देखता  है। उससे प्रेम करता है ।उन्हें अपने अंतरतम में समा लेता है।  उसकी तमन्ना है कि -बीतू तो भीतर क्षण-क्षण इस पृथ्वी को जीते हुए बीतू! । अपनी पृथ्वी से इतना प्यार एक कवि ही कर सकता है। वही कह सकता है अपनी मिटटी से प्रेम करने की - इतनी सोच कैसे पैदा करू ?इतना भाव कहा से लाऊ ?इतना विस्तार कैसे हो ? इतनी दृष्टि कहा से जागे? यही भाव हैं जो आज संकट में पड़ी पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी हैं।

प्रकृति की सत्ता  कितनी विविध ,अबूझ किंतु कलापूर्ण है? ये कविताएं इस बात को सिददत से महसूस कराती हैं। प्रकृति के अनेक छोटे-बड़े बिंब इन कविताओं में आते हैं। भरत प्रकृति को मा के रूप में देखते हैं । वह सावली घटाओं से बरसती धाराओं को माता की छाती से झरते दूध के रूप में देखकर उसके प्रति अथाह कृतज्ञता से भर जाते हैं। हो भी क्यों ना -बादलों का स्वभाव जो छायादार वृक्षों मीठे फलवाले पौधों  उध्र्वगामी पेड़ों और लाभदायक खेतों को जीवन देने के लिए टूटकर बरसना चाहते हैं। किसी की हसी में भी कवि को प्रकृति के विविध रंग दिखाई देते हैं जैसे अल्ल सुबह की धूप ,ओस की चमक ,अंकुर की मासूम हरियाली ,बरसात के बाद की धूप ,फूल की ख्ूाषबू। इसके अलावा इनकी कविताओं में हमें गमकते फूल ,दमकता आकाश, चहकती चिडि़या ,आम के बगीचे में बहती तन-मन को हरा कर देने वाली शीतल बयार, गोधूलि बेला , बछड़ो की हर्ष -ध्वनि , खनकती फसल , उसके तने ,हरी-हरी पतितया ,उसकी झुकी हुर्इ बालिया ,गनगनाती दुपहरिया मिलती है जो बहुत सुंदर ऐंद्रिक बिंब बनाते हैं। इस तरह के बिंब वही कवि दे सकता है जो प्रकृति के सानिध्य में रहता है। उसे केवल देखा ही न हो बलिक आत्मसात भी किया हो। प्रकृति के इन मनमोहक दृष्यों के साथ मनुष्य अपनी पूरी सक्रियता के साथ विद्यमान है । कविता दोनों के परस्पर संबंधों को व्यक्त करती है।  प्रकृति की ओर  कविता में हम देखते हैं गाव का जीवन और वहा की प्रकृति दोनों समाने उतर आते हैं । साथ ही उतर आती है कवि की गाव के लोगों और वहा की प्रकृति के बीच लौटने की बेताबी- अपने घर के पिछवाड़े डूबते समय डालियों ,पतितयों में झिलमिलाता हुआ सूरज बहुत याद आता है अपने चटक तारों के साथ रात में जी भरकर फैला हुआ  मेरे गाव के बगीचे में झरते हुए पीले-पीले पत्तेकब देखूूगाउसकी डालिया, शाखाओं पर  आत्मा को तृप्त कर देने वाली  नयी -नयी कोपलें कब देखूगा?  प्रकृति के प्रति यह अथाह लगाव ही है जिसके चलते पर्यावरण की चिंता इन कविताओं में यत्र-तत्र दिखार्इ देती है- जैसे हम ही जीवन की डाली पर बैठेकाट रहे हैं जीवन को  अरे कहीं ,दुर्गंध-युक्त विष-गैस  न ले-ले जगह  जहा है वायु रूप बहता जीवन । भरत की कविताओं में प्रकृति का आना उनकी कविता की ताकत है।

प्रस्तुत संग्रह की अनेक कविताओं में कवि तथा कवि कर्म पर विमर्श भी प्रकट होता है। भरत प्रसाद  रवींद्रनाथ के आसू  के बहाने कवि की सामर्थ्य एवं उसके उत्तरदायित्वों को बताते हैं। उनका अटूट विष्वास है कि एक सच्चा कवि जरा-मरण ,दुर्बलता से तनिक भी व्याकुल भयभीत या पराजित नहीं होता क्योंकि उसका जीवन उसकी संपूर्ण साहित्य साधना - मानव-मृत्यु की नियति पर सदा-सदा के लिए विजय प्राप्त करने की महागाथा है। कवि जड़-चेतन में धड़कती जिंदगी को बालक जैसे भोले-भाले निर्मल हृदय के साथ  सुनता है। अपने सचेत हृदय में क्षण-क्षण उठती-गिरती असीम भाव-तरगों का अर्थ विलक्षण एकाग्रता के साथ अनुभव करता है। श्रवण-षकित खो देने के बावजूद भी वह सुनता है। जीवन भर जिसकी उदार वाणी से प्रकृति के गहन रहस्य बेमिसाल स्वरों में मुखरित होते  रहते हैं। उपेक्षित भावनाओं को व्यक्त करता है।  मरते दम तकक्षण भर के लिए भी  ऐसी जुबान कमजोर नहीं पड़ती है। आदमियत की सबसे बड़ी परिभाषा संवेदना व ममत्व ही होती है जो एक कवि के भीतर जरूर होनी चाहिए - सारी उपलबिधयों के बावजूद आसुओं से बढ़कर आदमियत की कोर्इ परिभाषा नहीं । कवि के सृजन में प्रकृति के असंख्य रूप दूसरा जन्म पाते हैं। वह मानव चेतना को महत्तम सामथ्र्य के साथ प्रकट करता है। अपने कर्तव्य से कभी संतुष्ट नहीं होता । वह  अंतस्थल में एक साथ महाविस्फोट करते सैकड़ों दुर्लभ विचारों को चंद प्राणवान शब्दों में अमर कर  देता है। इस सामथ्र्य को पाने में एक सच्चा कवि पूरा जीवन लगा देता है। तमाम कष्ट सहता है।साधना की कसौटी पर जीवन को तपाता है। कवि समय के सच को खोलता है और उसको देखने के लिए एक जीवन दृषिट प्रदान करता है। भरत प्रसाद कवि की षीतल वाणी में आग के समर्थक हैं - और यह प्रतिरोध भी धारण करो व्यवहार में  चाहो इसे तुम हृदय सेसाधो इसे ता उम्र जो कि खड़ा हो इतिहास बनकरगलत-संस्कृति के खिलाफ। कबीर ,रवीन्द्रनाथ टैगोर ,बाबा नागार्जुन पर कविता लिखकर भरत प्रसाद कविता और कवि कर्म के इसी पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। इनकी कविताओं में अंतर्निहित प्रतिरोध ही है जो इन्हें बड़ा कवि बनाता है इस बात को स्थापित करते हैं। आजकल कबीर  कविता आज के उन पुरस्कार पिपासु कवियों पर तीखा व्यंग्य है जो कवि कर्म की गम्भीरता को भूलकर पुरस्कार की सेटिंग में लगे रहते हैं। कविता लिखना जिनके लिए पुरस्कार पाने का माध्यम रह गया है- आज के कवि तो महत्वाकांक्षा की प्यास बुझाने के लिएऊपर जाने के लिएगुरुओं का इस्तेमाल सीढि़यों के रूप में करते हैं अपने सत्य का सिर बुलंद रखने के लिए  सहर्ष सुल्तान का दंड सहने वाले आज तुम्हारे वंशज  अपना सिर ऊंचा रखने के लिए साहित्य को शर्मिंदा कर बड़े-बड़े पुरस्कार लूट रहे हैं।

  कवि भरत प्रसाद की दृढ़ मान्यता है कि वही साहित्य सार्थक है जो दूसरों के भावों को सही आवाज दे सके तथा जीवन से हारे ,उदास कुंठित ,निराष लोगों को नई आशा प्रदान कर सके । यदि ऐसा नहीं है तो फिर- वह कलम किस काम की जो दूसरों की भावों की सार्थक शब्द न दे सके जो असफल हो जाएजीवन से हार खाए हुए को थोड़ी सी उम्मीद देने में जो न दे सके वह ष्षकित जिससे हमारी आखें अदृष्य को देखती हैं। वर्तमान को उचित इच्छाओं और सपनों का रूप दे ,ऐसी चेतना प्रदान करे जिससे हर वस्तु में नए-नए अर्थों को तलाष किया जा सके। साहित्य यह काम तभी कर सकता है जब साहित्यकार र्इमानदारी से काम करता है। साहित्य एक ऐसा बीज है - जो मनुष्य के व्यकितत्व को विकसित करने के लिए दिलो-दिमाग में बोया जाता एक ऐसा न्यायालय जो न्याय से वंचितो को हक देती है। भरत साहित्य को एक पेड़ तथा साहित्यकार को उसके तने के रूप में देखते हैं इसीलिए बाबा नागाजर्ुन के न रहने पर वह कहते हैं - एक तना उखड़ गया । एक जनकवि को याद करने के बहाने वे आज की राजनीति की असलियत को उघाड़ते हैं । उसके द्वारा आम आदमी के प्रति किए जा रहे षडयंत्र को सही जगह से पकड़ते हुए इन षब्दों में व्यक्त करते हैं- पक्की निगाहों से परख लिया राजनीति  देख लिया सत्ता के षकितमान साजिष को  सधे चोर संसद के बहुत अच्छे भाषण में  कुर्सी की बदबू थीवादे थे बड़े-बड़े खाली और खतरनाकहरे-हरे घावों से  भरी हुर्इ जनता पर  मजहब का नमक डाल  जनसेवा करते थे। ......छिपे हुए कातिल जो  मरी हुर्इ जनता का  कत्लेआम करते थे -बाबा नागाजर्ुन ने  खुले आम खड़ा किया।

एक प्रतिबदध कविता प्रष्न खड़े करती है।यहा भी हमें अनेक कविताएं प्रष्न खड़े करते हुए मिलती हैं।  फिर भी चुप हैं कविता में कवि प्रष्न करता है कि हम अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं के प्रति आखें मूदे क्यों रहते हैं ?सब जानते हुए भी चुप क्यों रहते हैं? बच्चे भीख मागने के लिए मजबूर हैं । बहू-बेटियोें की इज्जत लूटी जा रही है । अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए आम आदमी का षोषण-उत्पीड़न हो रहा है। चारों ओर  भ्रष्टाचार ,अत्याचार ,अन्याय व्याप्त है -पूर्ण स्वार्थी राजनीति हैऊपर से नीचे तक फैला घूसखोर है पूरा ष्षासन न्याय बिक रहा है दुकानों पर पैसे पर सब कुछ करने की लोगा चलती यहा नीति है। इस सबके चलते प्रभु वर्ग ऐश कर रहा है। बावजूद सभी चुप हैं। मूक दर्शक बने हुए हैं । कवि को यह चुप्पी कचोटती है । यह कविता चुप्पी के खिलाफ हमें झकझोरती है और प्रतिरोध के लिए प्रेरित करती है। यह प्रतिरोध धार्मिक उन्माद और आतंकवाद के प्रति भी है। वे आतंकवाद को सभ्यता पर निर्मम प्रहार मानते हैं। आतंकवाद दिग्भ्रमित प्रतिषोध की तूफानी आग है। कवि सावधान करता है कि  यदि इस पर समय रहते नियंत्रण नहीं पाया जा सका तो - वह दिन दूर नहीं जब अहं और वर्चस्व की इस असभ्य लड़ार्इ में पूरी सभ्य दुनिया नष्ट हो जाएगी। सांप्रदायिकता के प्रति कुछ इस तरह से चिंता व्यक्त करता है कवि- यह रात सुबह से दूर दूर तक फैला इसका रोगअनगिनत अंधे रोगी आज  नहीं है वैध ,नहीं है दवा इसलिए स्थायी है-शोक ! यहां जिस रात और रोग की बात है वह सांप्रदायिकता है। कवि को कहीं भी इसका विरोध नहीं दिखाई देता है जिसके कारण यह स्थायी श्लोक में बदल गया है। सांप्रदायिकता का भूत प्रतिषोध ,अहं का तिलक लगा विद्वेष -ताल पर थिरक-थिरक करताली देकर नाच रहा  है । ये जो सांप्रदायिक लोग हैं वे सब हृदयहीन ,हत्यावादी और मस्तिष्कहीन हैं।

एक सच्चे कवि के लिए जरूरी है कि वह उस किसान-मजदूर का सम्मान करे जो दूसरों का पेट भरने के लिए अपना खून-पसीना एक करते हुए धरती पर सुख-बाटता है ,उसे सदाबहार गौरव प्रदान करता है और अतंत: अल्पायु में ही कालकलवित हो जाता है। यह सराहनीय है कि कवि भरत प्रसाद उन्हें प्रणाम करना चाहते हंै जिन्हें कोर्इ प्रणाम नहीं करता । जिन्होंने जीवन में हमेषा अकारण अपमान ही झेला है।हमेषा सबलों के सामने झुकते रहे। जिनका अल्पायु जीवन दुनिया की दासता में ही बीत गयाजिन्होंने कभीमुकित का स्वाद नहीं जाना । कितनी दु:ख की बात है हमें इनके आसू ,इनकी उदासी इनकी बेचैनी कभी विहवल नहीं करती । इनके पक्ष में हम नहीं बोलते । कवि अपनी ही लानत-मलानत करता है- क्योंकि मेरे भीतर ऐसे अनमोल किंतु उपेक्षित जनों की उपेक्षा का भाव  अभी मरा नहीं है जिंदा है। कवि का यह अपने आप से संघर्ष है ।कहा जा सकता है  भरत खुद से तू-तू ,मैं -मैं करने वाले कवि हैं। उनकी चाह है -अपने दुख को आत्मसात करऔरों के दु:ख जीना सीखूू .....सरपट चलते पथभ्रष्टों को फिर से टाग अड़ाना सीखू। एक अन्य कविता में वह कहते हैं- आदमी के लिए आदमी को जीना चाहता हू  हर उपेक्षित सत्य बोलने के लिएजीवन भर मूर्ख रहना चाहता हू सहज होकर सोचना  और जड़-चेतन को आत्मवत महसूस करना चाहता हू। एक सच्चे कवि की ही हो सकती है ऐसी चाह अन्यथा आज तो लोगों को अधिकाधिक भौतिक संसाधनों को हासिल करने की चाहत से फुरसत नहीं है। इससे कवि की मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था का पता चलता है। मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का ह्रास उसको बहुत कचोटता है-सदियों से इंसाफ के बहते हुए आंसू हमारी आखों को नम नहीं करते उनकी गहरी मानवीय उदासी हमें पिघला नहीं देती उनका निर्दोष मौन हमें बोलने को मजबूर नहीं करता ....... असल में हम मर चुके हैंन तो आखों से देखते हैंन दिमाग से सोचते हैंन ही दिल से महसूस करते हैंषायद हम भाग्य के भरोसे ,निरुददेष्य धरती पर जीते हुए  हाड़ मास के पुतले हैं। ....आत्मा हो गयी है बाझ आखें मर चुकी हैं। दरअसल यदि मनुष्य में संवेदना और मानवीय मूल्य न रहे तो समझिए वह जीते जी भी मृत के समान हैं । उनके लिए यह पंकितया सटीक बैठती है - ये मानव हैं इंसान नहीं  ये सिर वाले पशु पूछहीन।

 जहा एक ओर कवि भरत प्रसाद गरीब किसान -मजदूरों के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करते हंै वहीं दूसरी ओर आत्मबद्व भद्रलोक की चालाकिया और छल-छदम को प्रकट करने से भी नहीं चूकते हैं - एक-एक का जाली चेहरानकली दिल है नकली चाहत नकली भाषा के जादू में  गढ़े हुए ष्षब्दों के द्वारा लीप-पोत कर बोल रहे हैं।  अनर्थ का अर्थ और  आत्मबद्ध कविताओं में इस वर्ग का चरित्र पूरी तरह खुल कर आया है। समाज में रहते हुए कभी-कभी जाने-अनजाने सोचने-समझने वाले लोग भी इसके षिकार हो जाते हैं पर कवि इनसे अपने को बचाने और बाहर निकालने के लिए पूरी तरह सचेत और कटिबद्ध है- इसमें आग लगाकर फिर से अपनी आग जलानी होगीखुद को पहले जमींदेाज करफिर से पैदा होना होगा। इस तरह भरत की कविताओं में दो दुनियाएं  साफ-साफ दिखाई देती हैं - एक सबल दुनिया है जो अपने लाभ-लोभ केंदि्रत व्यकितगत दौड़ में मसगूल है। जो अंधे ,बहरे अहंकार से ग्रस्त हैं ,निजी स्वार्थ में धसे हुए हैं,सोची-समझी कपट-चाल में फसे हुए हैं -जिसमें प्रकाष का नाम नहींजिसमें पलता है अंधकार । जो दुर्बल जन पर  बलपूर्वक कब्जा कर उनका तनमन विधिवत पंगु बनाकर करते हैं अधिकार  समूचे वर्तमान पर । जो दुनिया के असली ईश्वर बने हैं। दूसरी दुर्बल दुनिया है जो सबल दुनिया की दौड़ के लिए अपने व्यथित हृदय और दुर्बल षरीर से निरंतर मार्ग प्रशस्त एवं निष्कंटक करने में लगी हुई है और उन्हीं के द्वारा षोषित-उत्पीडि़त है- जो -बड़े-बड़े नामों के पीछे चुपचाप रहकर गुमनामी के अंधेरे में पर संतोषपूर्वक काट लेते हैं पूरी की पूरी उम्र तिल-तिल मरते हुए । जो दुख को दुख अन्याय को अन्याय उपेक्षा को उपेक्षा और गुलामी को गुलामी  नहीं समझती है। उनकी कविताओं में ऐसे लोग पात्र बनकर आए हैं जो दूसरों के लिए सोते-जागते, मरते-मिटते हैं। ये ऐसे पात्र हैं जो खुद से बेपरवाह हैं। चुपचाप मार सह लेते हैं। बिना गलती के खुद को दोषी मान लेते हैं। कवि इनके वेष-कीमती खून-पसीने के सम्मान में आसू बहाने की बात कहता है। उन्हें स्नेह पूर्वक पढ़ने का साहस करता है। अपनी अंतरात्मा का सम्राट बनाता है। पर यहा एक बात ठहरकर कहनी होगी कि यह सब तो ठीक है लेकिन  हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आसू बहाने मात्र से काम नहींं चलने वाला है । कोरी भावुकता से यथार्थ नहीं बदलता। सहानुभूति की नहीं ,संघर्ष की आवश्यकता है। हमें हजारों मंजिलों की मरीचिका को छोड़ तथा अपने से मुक्त होकर इस संघर्ष में शामिल होना होगा। हमें माफ करना भाई कहने से काम नहीं चलेगा।

 समीक्ष्य संग्रह की कुछ सीमाएं भी हैं जिनका उल्लेख करना भी समीचीन होगा । कुछ कविताएं फोटोग्राफी शैली में भी हैं जो केवल एक चित्र दिखा देती हैं आगे कुछ नहीं कहती । न कारणों और न ही समाधान की ओर संकेत करती है।कहीं ले नहीं ले जाती हैं केवल भावुकता से भरी हुर्इ हैं। हा यह जरूर है इनसे कवि की आस्था और विश्वासों का पता चलता है।  बुजुर्ग लड़का  इसी तरह की एक कविता है जहा एक बारह वर्षीय मजदूर लड़के के जीवन का चित्रण किया गया है लेकिन ये हालात क्यों है ? कौन इसके लिए जिम्मेदार है ? इन प्रश्नों पर कविता मौन है। कुछ कविताएं सीधे बयान की तरह भी हो गर्इ हैं। बामियान के बुद्ध    कष्मीर के बच्चे  कविता किसी राजनीतिज्ञ के बयान सी है।इनमें षब्द स्फीत दिखाई देती है और भाषा कहीं-कहीं अखबारी भी हो गई है। इसके अलावा एक से अधिक कविताओं के लिए एक ही शीर्षक का प्रयोग करना कुछ खटकता है।

महेश चन्द्र पुनेठा
समीक्ष्य संग्रह की कविताओं से अधोपांत गुजरने के बाद यह कहा जा सकता है कि इन कविताओं में पर्यावरण चेतना ,प्रकृति से लगाव तथा कृतज्ञता ,कवि कर्म के प्रति प्रतिबदधता ,अपनी मातृभूमि से प्रेम , श्रमशील वर्ग के प्रति संवेदनशीलता ,अन्याय-उत्पीड़न-शोषण के प्रतिकार की चेतना ,काव्य पुरखों के प्रति सम्मान तथा बिंबों की नवीनता है। पहली बार में सीधी-सरल व सपाट प्रतीत होने वाली इन कविताओं को रूककर पढ़ने की आवष्यकता है । इनका सौंदर्य धीरे-धीरे ही खुलता है। ये कविताएं तराषी हुर्इ नहीं है अपने शिल्प और भाषा की जटिलता से आतंकित नहीं करती हैं जैसा कि आज की अधिकांश कविताओं की यह विशेषता बनती जा रही है। कुछ कवि जानबूझकर सुपाच्य और आस्वाध कविता नहीं लिखना चाहते। असंप्रेषणीयता को अपनी कविता की खूबी बनाना चाहते हैं। बकौल वरिष्ठ समीक्षक ओम निश्चल के वे परंपरा में व्याप्त औसत सौंदर्याभिधायी कविता के प्रति दिलचस्पी रखने वाले पाठक या रसज्ञ के आस्वाद के स्तर पर झटका देना चाहते हैं। इससे भला उनकी कविता का केंद्रीय असर तनिक क्षीणप्राय हो जाय उन्हें परवाह नहीं । ऐसे में इस संग्रह की भूमिका में भगवत रावत सही कहते हैं- हिंदी की समकालीन कविता पर बार-बार जो यह आरोप लगता आ रहा है कि वह पाठकों तक नहीं पहुचती या कि वो पाठक विमुख होती जा रही है-भरत की कविताएं अपने कथ्य और गुणात्मकता से बिना कोई समझौता किए इस धारणा को तोड़ती हैं। यह अच्छी बात है कि भरत प्रसाद को केदार ,नागार्जुन ,त्रिलोचन जैसे कवियों की काव्य परम्परा पर विश्वास है। वे कथ्य और शिल्प के स्तर पर अपनी लोकधर्मी परम्परा से संस्कार ग्रहण करते हुए उसका विस्तार करते हैं।ये कविताएं लोक हृदय की पहचान करने की कोशिश की कविताएं हैं। यहा लोक से संबंध बनाने का ईमानदार प्रयास दिखाई देता है। इनमें मनुष्यता की तलाश जारी है। यह उपेक्षित-अवहेलित जनों की पीड़ा को कविता की अंतर्वस्तु में ढालने का स्तुत्य प्रयास है। आशा है आगे आने वाली कविताओं में उन्हें पहचानने वाली आखें ,उन्हें सुनने वाले कान ,उन्हें पाने वाली चेतना और अधिक गहराई और व्यापकता ग्रहण करेगी।
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