अब बिगड़े पे क्या शर्मिन्दगी
आदित्य विक्रम सिंह
1991, या कह ले उदारवाद, किसी आँधी की तरह आया और तूफान की तरह गया नहीं, यहीं, भारत में ठहर गया
जैसे आँखो में किरकिरी ठहर जाती हो और तब तक आँख नही छोड़ती जब तक आँख खराब न हो
जाये, मुश्किल इसका आना और ठहरना न था अपितु इसका
स्वीकार मुश्किल था, जैसे कोई गुनाह का स्वीकार अमूमन
होता है। विकास के नाम पर जो कुछ होता रहा वह खुल चुका है पर इन उदारवादी नीतियों
तथा इसके परिणामों का विरोध करने वाले कम न थे वे बड़ी बड़ी बातें करते रहे जो दूसरो
को तो क्या खुद उन्हें भी समझ में नही आती थी, कहानीकार लाल कहानियों के अंदाज में सीधे विश्व बैंक पर हमला करते थे जैसे
वह कोई जमींदार के घर जितनी आसान मजिंल हों कोई कथाकार विश्व बाजार को ऊँट समझ
समझाकर खुश हो ले रहा था तो कोई बाजार की आलोचना करने के बजाय दैनन्दिन जरूरत के
सामानों की आलोचना में लगा हुआ था। इस तरफ किसी का ध्यान न था कि इस उदारवाद ने
हमें कितना और किस कदर नुकसान पहुँचाया है यह तब देख पाते है जब हम उन हकीकतांे को
स्वीकार करते है जो हमारे देश और समाज को छीलने में लगी हुई थी। नयी सदी के पहले
दशक में जो कुछ नये कथाकार इस सत्य के रू-ब-रू हुये उन्होंने इसके तल तक जाने की
कोशिश की और इस तरह हमारे सामने एक सर्वथा नयी संवेदना वाले रचनाकारों की पीढ़ी
उपस्थित हुई जिनमें विमल चन्द्र पाण्डेय
का एक खास स्थान है।
विमल चन्द्र के पहले कहानी संग्रह ‘‘डर’’ को भारतीय
ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस संग्रह में कुल 12
कहानियाँ है। विमल के संग्रह ‘‘डर’’ की विशेषता यह है कि कई रंग रूप की कहानियाँ हमारे समाज के
विघटन के तह मंे जाती हुई दिखती हंै। विमल की कहानियों में पतन का अनूठा स्वीकार
है जिस पतन की गर्त में आर्थिक सुधार के नाम पर ढ़केल दिया गया। संग्रह के शीर्षक
वाली कहानी ‘‘डर’’ हमारे समाज के विघटन के स्तर को दिखाने के लिए एक बड़ा उदाहरण है। कहानी के
पहले पाठ से यह एक मनोविज्ञान की कहानी प्रतीत होती है पर परत दर परत कहानी का पाठ
जरूरी है। कहानी की शुरूआत लड़की के आकार-प्रकार से शुरू होकर उसके स्त्रियोचित डर
के वर्णन से होती है मसलन चूहे, तिलचट्टे, मकड़े अंधेरे आदि से डरना पर यह गौरतलब है कि हम अदृश्य चीजों
से ज्यादा डरते है उसके साथ भी यही है- ‘‘उन चीजों से उसे ज्यादा डर लगता था जिन्हें उसने सुना था, देखा नहीं था बनिस्बत उनके जिन्हें रोज देखती थी।’’
एक रात पिता की तबीयत ज्यादा खराब होने पर
उसे अपने डर पर काबू पाते हुए बाहर जाना पड़ता है और वह गलती से डाक्टर के घर जाने
के बजाय एक गलत घर में पहुँच जाती है और वहाँ भी गलती से उसके साथ गलत होने लगता
है परन्तु वह किसी तरह अपनी जान बचाकर उसी कब्रिस्तान में छुपती है जहाँ का नाम
सुनकर रोगटें खड़े हो जाते थे, यहाँ उस आदमी से
जो डर है उसके आगे भूत, प्रेत कब्र आदि
का डर हल्का पड़ जाता है। यह है कहानी का सामान्य पाठ पर इस कहानी को ध्यान से
पढ़ेगे तो पायेंगें कि यह हमारे समाज का सामान्य सत्य है, पुरूष अब भी समाज का थानेदार है वो जब चाहे किसी लड़की के पीछे
पड़ सकते है हम जो बुद्धिजीवी है वे इस महान पुरूषोचित हरकत की आलोचना न कर बगले
झाँकने लगते है और बेशर्मी से इस कहानी को मनोविज्ञान की कहानी बताने लगते है।
विमल की अधिकतर कहानियों का विषय युवाओं के
जीवन शैली और जीवन के संघर्ष के इर्द गिर्द है। संग्रह की कहानी है ‘‘एक शून्य शाश्वत’’ इस कहानी में टिपिकल मध्यवर्ग के संस्कारों वाला युवक वर्ग है जो सही
शिक्षा -दीक्षा और रोजगार न होने के कारण परेशान है फिर बुद्धि लगा कर बाबा बनने
का काम शुरू करते है और धँधा चल जाता है। यह कहानी भी समाज के पतन को रेखांकित
करती है, कि कैसे आज का समाज ‘आत्मा-परमात्मा’ और महथंई के जाल में फँसा हुआ है। तीन युवा, शाश्वत, सुनील और मल्लिका मिलकर एक संगठन
बनाते है जो प्रवचन देने का काम तथा अन्य धार्मिक काम करते है। धीरे-धीरे शाश्वत
परोपकार और सेवा भाव में लग जाता है जबकि सुनील और मल्लिका जीवन के योग पक्ष की ओर
मुड़ जाते है। कहानीकार ने युवाओं की भटकन के साथ साथ धर्म के नाम पर होने वाले
रोजगार को अच्छेे से पकड़ा है। धर्म, प्रवचन, और बाबावाद के प्रति जो रूझान युवाओं
में तस्दीक की गयी है वह काबिले तारीफ है आज कल समाज में युवा साधु और साध्वियों
की बाढ़ आ गयी जैसे कि गोया सन्यास जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम हो। हमारे यहाँ
पुराने समय से सन्यास की परम्परा रही है
पर एक उम्र के बाद लेकिन आज धर्म के ग्लैमर ने सन्यास लेने को मजबूर कर दिया है।
यह कहानी सीधे हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी चोट करती है। आज कल तकनीकि,
विमल चंद्र पाण्डेय |
डाक्टरी, प्रबंधन को ही शिक्षा का चरम मान लिया गया है और शिक्षा में
जो वैज्ञानिकता होनी चाहिए थी वो हमारे समाज की शिक्षा व्यवस्था से सिरे से नदारद
है। इस वैज्ञानिकता का जो अभाव है वो हमें यहीं पहुँचाता है कि अच्छे अच्छे
डिग्रीधारी लोग धर्म के पाखंड में उलझे रहते है।
इस कहानी में हमारे समाज की एक और मुश्किल
रेखांकित है वो है स्त्रियों के प्रति पुरूषों का रवैया। मल्लिका द्वारा शाश्वत को
छोड़ दिया जाना और सुनील का साथ सम्वरण करना इसी पुरूषोचित मानसिकता का उदाहरण है, जिसमें यह मान लिया गया है कि स्त्रियाँ सफलता इत्यादि
देखभाल कर पे्रम करती है। विमल ने इस
कहानी ने प्रेम के वातावरण को दिखाने के लिए बार-बार एक शब्दावली प्रयोग की है- ‘‘हल्के प्रकाश में गाढ़ा प्रेम’’ प्रकाश वही रहता है, प्रेम वही रहता है प्रेमिका वही रहती है पे्रमी बदलता रहता है
और ऊपर से प्रेमिका की समझ की दाद देनी पड़ेगी जो प्रेमी बदलते समय यह जमुला कहती
है कि ‘‘प्रेम सिर्फ आपसी समझ माँगता है।’’ मतलब अब प्रेम भावना का नहीं बुद्धि का विषय हो गया है।
युवा मन के विचलन के साथ-साथ आज के समय में
रंगमच की दशा और दिशा के रेखांकित करती कहानी ‘‘रंगमंच’’ है। युवक एक छोटे से शहर जहाँ रंगमंच
का कोई मतलब नहीं दिल्ली आ गया अपने सपनों को पूरा करने। पर वहाँ जाकर उसे महसूस
होता है कि नाटक, रगंमंच को लेकर जो अवधारणा उसकी वहाँ
के लोगों के प्रति थी गलत थी। मूलतः रंगमंच की आज के समय जो हालात है उस ओर ध्यान
दिलाती है यह कहानी। विमल की कहानियों की एक बड़ी विशेषता सबधों और संवेदनाओं की
गहरी पड़ताल करना। संग्रह की दो कहानियाँ सबधों और संवेदनाओं पर केन्द्रित है ‘‘स्वेटर’’ और ‘‘चश्मे’’, हांलाकि संग्रह
की अन्य कई कहानियों में भी संबधों की बात चीत है पर इन दोनों कहानियों में
पिता-पुत्र के संबधों की चर्चा है अतः इन पर साथ में बात करना ठीक रहेगा पहले ‘‘स्वेटर’’ का जिक्र। अध्ययन
के लिए विदेश जाता लड़का, जाने की तैयारी
और जाने के बाद की फिक्र में माँ बाप। कहानी सामान्यतः माँ बाप की स्नेहगत चिताएँ
और उपदेश जिसे युवा वर्ग अपने दायरे का अतिक्रमण समझते है और हमेशा उसकी कसमसाहट
महसूस कर उससे मुक्त होना चाहते है को दिखाती है। कुछ रिश्ते ऐसे भी होते है
जिनमें स्नेह का बहुत प्रदर्शन नहीं होता वह गाहे-बगाहे मौकों की तलाश मे रहता है
जब स्नेह प्रदर्शित हो। एक उम्र के बाद पिता- पुत्र का रिश्ता भी इस दायरे में आ
जाता है। पिता का भागते हुये बेटे का स्वेटर लेकर आना और तब बेटे का ये सोचना- ‘‘स्थिर गम्भीर आँखों और लम्बी साँसो के बीच पापा ने कितनी
चिन्ताएँ छिपा रखी है। उसका मन करता है अपने दिल में पापा के लिए छिपा सारा प्यार
जाहिर कर दे।’’
इसी धरातल पर दूसरी कहानी है ‘‘चश्मे’’। जिसमें एक
भारतीय पिता की छवि जो एक समय तक हिटलर की भूमिका में रहते है और पूरे घर में उनका
खौफ रहता है। बीबी बच्चे सब आतंकित फिर बच्चों द्वारा बाहर जाना। कहानी इस अर्थ
में महत्वपूर्ण है कि पिता को नये जमाने के अनुसार ढलते हुए दिखाया गया है। उम्र
के साथ चइमे का नंबर ही बदलता है पर यहाँ पूरा फ्रेम भी बदल रहा है।
आज के युवा कहानीकारों पर यह आरोप लगता है कि
वे अपने जड़ से कट रहे है आप उनको पढ़ते हुए उनके गाँव गिराँव को नहीं पकड़ सकते इस मामले में विमल अन्य कहानीकारों से अलग है।
बनारस उनकी हर दूसरी कहानी में मौजूद है प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से। बनारसी मिजाज
में रची पगी कहानी ‘‘मन्नन राय गजब आदमी है’’। यह कहानी बुजुर्ग होने के अहंकार को सेलिबे्रट करने वाली
है। माॅरल पुलिसिंग मे लगे मन्नन राय के पक्ष में लेखक का एक ही वाक्य कहानी को
अनर्थ कर देता है। लेखक पहली दूसरी की पंक्ति में लिखता है कि वो मन्नन राय का
प्रशंसक है। मन्नन राय माॅरल पुलिसिंग के तहत दो रूपों में सामने आते है एक तो
समाज सुधारक या कहें दबंग समाज सुधारक का तो दूसरे तरफ वो वही काम करते नजर आते है
जो संघियों को वैलेन्टाइन डे के आस पास होता है। वैसे वे समाज की बातें करते है, सुधार की बातें करते है पर एक प्रेमी युगल को जरा सी अतंरगता
में देखते है थप्पड़ मार देते है। कथा का वह असली नायक, जिसे कहानी मे विलेन का दर्जा दिया गया है उन्हे देशी कट्टा
दिखा देता है मन्नन राय गायब हो जाते है पर गनीमत यह देखिए कि बदमाश पात्र बस
उन्हे तमचां दिखाता है और थप्पड़ मारे जाने के बाद भी कोई चोट नहीं पहुँचाता। अगर
मन्नन राय समाज के हो रहे बदलाव से चितित हो गये थे तो उन्हें किन्ही और कारणों से
गायब होना चाहिए था प्रेम के दुश्मन के रूप में
नहीं हांलाकि लेखक ने प्रेम के दृश्यों का वर्णन ऐसे अंदाज मे किया कि वो
मन्नन राय को अश्लीलता के खिलाफ खड़ा करवा कर उनका बचाव कर सकता है पर हमें भटकना
नही चाहिए मूल मुद्दा प्रेम का ही है।
‘सोमनाथ का टाइम टेबल’ संग्रह की सबसे
अच्छी कहानी मुझे लगती है। और वह इस अर्थो में भी अच्छी कहनी है कि आज के समय
उत्तर प्रदेश में दलितों की स्थिति पर सीधा बयान है। कहानी में सोमनाथ है जो कि
बोर्ड परीक्षा की तैयारी में जुटा है। प्रेमचन्द के ‘बड़े भाई साहब’ नुमा सोमनाथ का भी एक बड़ा भाई है जो खुद तो गली के शोहदों में गिना जाता
है पर अपने छोटे भाई को हरदम पढ़ने और अनुशासन के लिए मारता डाँटता है। ऐसे ही एक
दिन सलोनी सोमनाथ के जीवन में आ जाती है और उसके बाद सोमनाथ के जीवन में सब तरफ
बसन्त ही नजर आता है- ‘‘अब नालियों में
मुँह मारती’’ सुअरें देखकर उसे गन्दा नहीं लगता।
पर प्रेम सफल हो जाए तो प्रेम कहाँ। सलोनी पर कुछ गिद्ध भी मँडरा रहे थे जिसमें
उसके भाई के दोस्त भी शामिल थे जो सलोनी पर कुदृष्टि रखते थे। इन सबसे सलोनी को
बचाते व खुद भी बचते हुए सोमनाथ बोर्ड की तैयारी के साथ-साथ प्रेम को भी जी रहे
थे। पढ़ाई के टाइम टेबल के साथ-साथ जीवन के
टाइम टेबल में भी लगातार बदलाव आ रहा था।
एक बानगी देखिए-
‘‘सलोनी उसकी जिन्दगी की हर परत में शामिल हो चुकी थी कई कठिनाइयों को देखते
हुए उसने कुछ दिनों बाद एक नये टाइम टेबल की रचना की जो पिछले टाइम टेबल से कुछ
बिन्दुओं पर अलग था।
सुबह चार बजे-जागना
चार से साढ़े चार-सलोनी के गाए गीत वाकमैन
लगाकर सुनना, रात आठ से साढ़े आठ- सलौनी के गाने
वाकमैन में सुनना’’
आज भी समाज में सवर्णो की दलितों के प्रति जो
मानसिकता होती है उसको भी इस कहानी में बड़ी संजीदगी से दिखाया गया है। चूंकि सलोनी
एस0सी0 है तो उसे सारे बड़े लोगों मसलन, शुक्ला जी सिंह अंकल और तिवारी जी लोगों के मकान के साथ अपना
मकान बनवाने का अधिकार नही। पहले के जमाने में एक विशेष जाति को गाँव के दायरे से
बाहर बसाने का प्रचलन था। कुछ लोग आज 21 वीं सदी में उस को प्रचलन को लागू करवाने
में शिद्दत से लगे रहते हैं। मकान बनने से रोकने के लिए कहानीकार ने जिस फार्मूले
का प्रयोग दिखाया है वह फार्मूला आज के समाज में बहुत कारगर सावित हो रहा है। किसी
जमीन पर कब्जा करना हो तो उस जमीन से किसी भगवान
को उत्पन्न करवा दे या प्रकट करवा दे फिर देखंे किसी की क्या मजाल उस जमीन
पर कुछ करवा ले क्या पुलिस क्या कचहरी। फिलहाल जमीन पर सलोनी का मकान नहीं बन सका
और उसे मुहल्ला छोड़ना पड़ता है पर आज चाहंे जितना सामाजिक समरसता की बात कर पर इस
यथार्थ को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम आज भी कितनी निष्ठा से जाति-पाँति और धर्म
के नियमों का पालन कर रहे हैं।
संग्रह की एक कहानी है ‘‘सिगरेट’’ जैसा कि नाम से
जाहिर है कि कहानी सिगरेट के सम्बन्धित होगी और सिगरेट अच्छी चीज नही मानी जाती तो
कहानी भी इस बुरी आदत है पर है। विमल की ये बड़ी खासियत है कि बुराइयों को भी उसी
जज्बे से स्वीकार करते है और बड़ी साफगोई से बात करते है।
संग्रह की अन्य उल्लेखनीय कहानियों में ‘उसके बादल’ कहानी भी है।
विमल अपनी कहानियों में अपरिभाषित संबंधो की परतों की खोज-बीन भी करते है। पिता का
मौसी के साथ संबंध पुत्र को हमेंशा गलत लगता है पर एक दिन पिता और मौसी के बीच हुए
पत्राचार को पढ़ता है तो उसे समझ में आता है कि माँ के लिए पिता और मौसी ने अपने
प्यार की कुर्बानी दी। तब उसका नजरिया जो कि पिता के प्रति था वह बदल जाता है।
संग्रह की एक और अच्छी कहानी ‘‘जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी च’’ है जिसमें पात्र है, लेखक विमल, एक नायक कृष्ण मुरारी और नायिका
वेदिका कहानी विश्वविद्यालयी परसिर के अविश्वविद्यालयी माहौल के बीच शुरू होती है
लेखक ने इस कहानी में युवकों की आधिकतर समस्याओं को उठाया है, प्रेम, बेरोजगारी, हीनताबोध, आदि पर इसके साथ
ही साथ मीडिया की फील्ड में जाने में होने वाले संघर्षो और मीडिया की विषय जो
हमारी गफलत होती है सबको व्यक्त करता है। लेखक ने कहानी को प्रेम कहानी बताया है
और प्रेम करते हुए दिखाया भी है पर प्रेम की सफलता के लिए प्रेमीका सफल होना जरूरी
है अतः प्रेम कहानी खत्म। पर इस प्रेम के साथ-साथ पत्रकारिकता के क्षेत्र के
ग्लैमर की पीछे के अधंकार पर विमल ने प्रकाश डाला है। कहानी इस सबके साथ साथ जिस
बात को बड़ी संजीदगी से पकड़ती है वह है ‘‘जैक’’ आज हम अगर किसी भी नौकरी की बात करते
है तो सामने वाला सबसे पहले हमारे ‘‘जैक’’ के बारे में पूछता है जैसे सबसे बड़ी
योग्यता वही हो। फिलहाल आम धारणा है कि
किसी बड़े वाहन के टायरों को चेंज करने के लिए ‘‘जैक’’ का प्रयोग होता
है पर यह शब्द कैसे अपना अर्थ विस्तार कर रहा है यह सोचने की बात है अब सिर्फ ‘‘जैक’’ वाहन के लिए नहीं
बल्कि जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है।
संग्रह की एक अनूठी विशेषता मुझे दिखाई पड़ती
है वह है कहानीकार का लगभग हर कहानी में स्वयं का मौजूद रखना, जिससे आपको हर कहानी की सत्यता के विषय में किंचित मात्र
सोचना ना पड़े। आज के दौर में कहानी में
जहाँ भाषा का खेल चल रहा है वहाँ विमल मजबूत अन्तर्वस्तु के साथ मौजूद है हालाकि
गाँव इनकी कहानियों में भी नदारद है पर शहर में क्या लोग नही है और उनका जीवन जीवन
नही है?
संग्रह की अन्य कहानियाँ भी लेखक के उज्जवल
भविष्य की ओर मुतमईन करती है। ‘‘वसीम बरेलवी’’ का एक शेर याद आ रहा है-
जहाँ रहेगा वहाँ रोशनी लुटाएगा
किसी चराग का अपना मकाँ नही होता।।’’
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समीक्ष्य कृति- ‘डर’ आदित्य विक्रम सिंह
लेखक- विमल चन्द्र पाण्डेय शोध छात्र (हिन्दी)
भारतीय ज्ञानपीठ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
मूल्य-130 रूपये वाराणसी,
मो0 नं0-8010583076,
9532230976
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